बाढ़ विभीषिका - कविता - सुनीता रानी राठौर

सावन में उफनती तीव्र वेग से नदियां
कभी वरदान कभी अभिशाप बनती।

टूट जाते जब नये बांध और पुलिया
आम जन के हृदय में दहशत भरती।

विकराल रूप जब धड़ लेती नदियां,
डर जन-जन में कैसा भयावह भरती?

टूटते सपने और उजड़ती जिंदगियां
बाढ़ में कितने घरों की तबाही होती?

तबाह हो जाते जब गांव और बस्तियां
दर-दर ठोकर खाने की मजबूरी होती।

राजनेता न समझें जनता की परेशानियां,
काश! जमीनी स्तर पर काम की होती।

एक मौत पर सेंकते राजनीतिक रोटियां,
कैसे सैकड़ों मौतें नजरअंदाज की होगी?

क्या मर जाती होंगी नेताओं की आत्मा ?
जब बहते घर-द्वार की सूचना मिली होगी।

सिर्फ उदघोषणा करते जो जन प्रतिनिधि
जनता कब तक आश्वासन से गुमराह होगी?

घर छोड़ कौन पलायन करता है खुशी से?
काश! घर बहने का दर्द उन्हें महसूस होती।


सुनीता रानी राठौर - ग्रेटर नोएडा (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos