बस अब बहुत हुआ - कविता - अशोक योगी "शास्त्री"

मेरे धैर्य की परीक्षा मत लो
मेरी...रज .. में .. .पलकर
बड़ी  होने   वाली   संतानों
लाखों, करोड़ों अरबों खरबों
पैदा  किए  हैं  तुम्हारे  जैसे
मैंने....मेरे ........ गर्भ  से
जलचर नभचर स्थलचर उभयचर
अवनि अंबर .....पाताल   समंदर
स्हस्त्रों   ब्रह्मांड   में    विस्तृत
सूर्य  तारे  ग्रह .......और  चन्द्र।

कदाचित्   मेरी  चुप्पी  को
तुमने कायरता समझ लिया
और तुम्हारी महत्त्वाकांक्षाओं ने
तुमको  बना   दिया  कृतघ्न
मुझ  पर   विजय   की  चाह  में 
निकल पड़ा ले कर, कर मे सिकंदर
मैंने सोचा शायद सिकंदर की
दुर्गती  से  तुम  सबक  लोगे
वन  गिर   सरित  सागर को
अपना     सहचर     मानोगे।

किन्तु  तेरी   अभिलाषाएं    जिंदा  रही
मेरे श्रृंगार को विधवा सम विच्छिन्न  कर
हृदय स्थल को कामनाओं से विदीर्ण कर
मेरे   तन   को  निर्दयता से  रौंदती  रही
बस अब बहुत हुआ,दर्द सहना असहा हुआ
मै समा जाना चाहती हूं नींद  के आगोश में
मिटाकर तुम्हारा अस्तित्व सदा सदा के लिए
फिर...लाखो...करोड़ों...अरबों...खरबों
वर्षों ...में ...जाग...सकूं...नींद...से शायद।

अशोक योगी "शास्त्री" - कालबा नारनौल (हरयाणा)

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