ग़रीबी और महामारी - कविता - आकांक्षा भारद्वाज



ये काल का चक्र भयंकर है
कैसी विपदा आयी है जो बना हर इंसाँ दुर्बल है।
ना शोर ना सपाटा है
अब हर जगह बस सन्नाटा है।।
है कुछ लोग घरों में बंद
तो कुछ घरों को ढूंढ रहे है...
बस कोई आसरा मिल जाए उन्हें
यही उम्मीद लिए घूम रहे है।।
हां! सही सुना है आपने...

तो यहां उन गरीबों की बात की जा रही है
जो निर्बल है, लाचार है।
हज़ारों पीड़ित मजदूर आज भी घर से बाहर है!
भटक रहे किसी राहों में
तड़प रहे है, सुलग रहे है!!
जब तक मंज़िल ना मिल जाती उन्हें
वो निरंतर चल रहे है।
आख़िर क्यों वो इतना विलाप कर रहे है?

है हालात उनकी बुरी,
ऊपर से ये महामारी गहरी बड़ी!
तो बस...
एक निवेदन है सभी से...
की जब देखोगे किसी गरीब को, तो मोड़ना ना रुख अपना तुम।
की जब देखोगे किसी गरीब को तो बस...
हाथ बढ़ाकर अपना, थोड़ा साथ निभाना उसका तुम।।

आकांक्षा भारद्वाज
देवघर (झारखंड)

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