न दो बूंद आँसुओं के निकले ,
हैं कवलित हम अवसादन के ,
हैं मजदूर बने मजबूरी बस ,
जल कटे मरे हो जाएँ चिथड़े।
है दिशा दशा अवदशा भ्रमित ,
फँस मकड़जाल हों आर्त क्षुधित
दाता जन मन पददलित पीड़ित
वे रहे महल सुख आनंदित।
परवाह किसे क्षुधार्थ अनल ,
रोग शोक पीड़ परीताप दहल ,
हम कामगार अभिशापी हरपल ,
भटके इधर उधर या गाँव शहर।
कोई रोए हँसे यहाँ यह चाह नहीं ,
दीन हीन मक्कार कहे परवाह नहीं,
हैं निर्माणक नित सेतु उद्योग महल,
पर जग दे न कभी सम्मान हमें।
हे मीत न तुम अवसाद कऱो ,
खल दानवता का प्रतिकार बनो,
ले जन्म धरा विधिलेख बुरा ,
क्रन्दन मजदूर मरण न आश धरो।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"नयी दिल्ली