दो बूंद आँसुओं के - कविता - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


न दो  बूंद  आँसुओं   के निकले , 
हैं   कवलित   हम अवसादन के ,
हैं   मजदूर  बने  मजबूरी   बस ,
जल  कटे मरे  हो जाएँ चिथड़े।

है   दिशा   दशा अवदशा भ्रमित ,
फँस मकड़जाल हों आर्त क्षुधित
दाता जन मन पददलित पीड़ित 
वे  रहे  महल   सुख   आनंदित।

परवाह  किसे   क्षुधार्थ  अनल ,
रोग  शोक  पीड़ परीताप दहल ,
हम कामगार अभिशापी हरपल ,
भटके इधर उधर या गाँव शहर। 

कोई रोए हँसे यहाँ  यह   चाह नहीं ,
दीन हीन मक्कार कहे परवाह नहीं, 
हैं निर्माणक नित सेतु उद्योग महल,
पर  जग  दे न  कभी  सम्मान हमें। 

हे  मीत  न  तुम  अवसाद   कऱो ,
खल दानवता का  प्रतिकार  बनो,
ले  जन्म   धरा   विधिलेख   बुरा ,
क्रन्दन मजदूर मरण न आश धरो।  

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 
नयी दिल्ली

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