अब तो आजा प्यारे सावन - कविता - भरत कोराणा


अब तो आजा प्यारे सावन
कितनी तपती दोपहरी में
तलवे फूटे मजदूरों के
नाक से बहती जर जर धारा
होठों पर पपटी जम गयी है 
नहीं निवाला हर मे मेरे।। 
सघन तिमिर में बढ़ती रातें
भुक् भुक् करती बतियाती है
पैरों में पसली को डालें
मौन स्वर में चिल्लाता हु।। 
मधुर सुहानी यादें बचपन की
बाबा की बैलो की गोईया
भूरी कमली समेत खा गया
चौथ बढ़ा मेरा पटवारी।। 
रहट का संगीत पुराना
कानों मे मल्हार टपकती
मेड़ों पर पानी का बहना
खलिहानो संग भूल गया मै।। 
बाबा की गीता कहती थी
मेहनत की पूजा की बाते
अपना को अपना माना था
गयी पुरानी बात निराली।। 
मेघ आते थे बने जवाई
धीरे धीरे हँसते छत पर
कभी निपोरे दसन निराले
झड़ झड़ बरसा करते थे।। 
छाया देता नीम पुराना
कहाँ खो गया आंगन का राजा
मिठी मिठी गुठली देता 
अमृत सम जो स्वाद छोड़ता।। 
पहाड़ों के शिखर पर बैठा
क्षितिज इठलाता करता था
धीरे धीरे ढलता जाता था
जैसे कोई याद पुरानी।। 
खुलें में रातों का नभ था
माता के आँचल जैसा था
कितना सुख देता था मुझको
बीती यादों का साथी वो।। 
कूल में मेरे अमन चैन था
दादी मुझको लाड़ लडाती
रातों मे गोदी संग खेला
परियों की सुनता रहता था
मिठी मिठी कथा निराली।। 
इश्क महोब्बत खेतों संग
कभी बनाई तितली रानी
कभी बनायी खीर सुहानी
बीत गया अल्हड़ का सानी।। 
पानी की बूँदों को दिल पर
लेकर बैठे खेला करते
कभी नाव को कागज करके
खेला था पानी संग जानी।। 

भरत कोराणा
जालौर (राजस्थान)

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