संदेश
धरती का शृंगार मिटा है - कविता - राघवेंद्र सिंह
धधक उठी है ज्वालित धरती, जल थल अम्बर धधक उठा है। अंगारों की विष बूँदों से, प्रणय काल भी भभक उठा है। सूख गए हैं तृण-तृण सारे, दिग दिगंत…
बिंदु-बिंदु शिल्पकार है - कविता - मयंक द्विवेदी
सीमित ना हो दायरा उर के द्वार का, प्रकृति भी देती परिचय दाता उदार का। यूँ ही नहीं होता सृजन उपलब्धि के आधार का, छूपी हुई नींव में आरंभ…
शिशिर सुंदरी - कविता - सतीश पंत
नवल भोर संग धवल कुहासा शिशिर ओढ़ जब आई, वसुंधरा से शैल शिखर तक मेघावली सी छाई। शिशिर सुंदरी रूप मनोहर देख देह सकुचाई, शीत वायु के प्रब…
मुस्कान से भरी - नवगीत - अविनाश ब्यौहार
खेत में फ़सल है मुस्कान से भरी। ख़्यालों के क़ाफ़िले हैं रुके हुए। बरगद के कंधे लगता झुके हुए॥ फ़सलों की साड़ी लगती हरी-हरी। नन्हे-नन्हे हा…
पर्यावरण संरक्षण - कविता - महेन्द्र सिंह कटारिया
निज राष्ट्र की पुनीत पावन धरा को, मिलकर हरियाली से प्रफुल्ल बनाएँ। पर्यावरण संरक्षण में हम दे योगदान, प्रकृति के प्रति आत्मकर्तव्य निभ…
हे वसुधा के शृंगार - कविता - मयंक द्विवेदी
हे! वसुधा के शृंगार हे! प्रकृति के उपहार हे! सुवासित मल्हार हे! ऋतुओं के ऋतुराज देख रहे नयन शबनम शबनम के जलकण में श्याम मेघों के दर्प…
भौतिकवाद, प्रकृतिवाद और हमारी महत्वाकांक्षाएँ - लेख - श्याम नन्दन पाण्डेय
सुदूर गाँव और जंगलों मे बैठा कोई बुज़ुर्ग व्यक्ति और उसका परिवार जो खेती बाड़ी करता है, गाय, भैंस और बकरियाँ चराता है, हाथ मे स्मार्ट फ़ो…