पली बढ़ी शृंगारित हिन्दी - कविता - राघवेंद्र सिंह | हिंदी भाषा पर कविता

पली बढ़ी शृंगारित हिन्दी - कविता - राघवेंद्र सिंह | हिंदी भाषा पर कविता | Hindi Poem About Hindi Language - Pali Badhi Shringaarit Hindi
संस्कार की मृदु सुगंध में,
पली बढ़ी शृंगारित हिन्दी।
संवेदित, उत्कृष्ट व्याकरण,
में लिपटी उद्धारित हिन्दी।

शुभ्र, श्वेत अरविन्द कुसुम सम,
ललित कलाओं सी वनिता।
रुचिर, सुरम्य, मनोहर, रम्या,
बनी प्रवाहित नव सरिता।

छंद, रसों और अलंकार से,
उद्भिद मुग्धित, विश्वप्रिया।
अनुपम सृष्टि की सृजनहार,
चिर, शाश्वत, विरचित अभिक्रिया।

कलित पुरातन माँ संस्कृत से,
निकली यह संस्कारित हिन्दी।
संस्कार की मृदु सुगंध में,
पली बढ़ी शृंगारित हिन्दी।

धरा-व्योम पर नव रव की यह,
बनी प्रार्थना की भाषा।
नवल सृजन, नव ही स्वरूप की,
बनी याचना, अभिलाषा।

विरह, रुदन, क्रंदन, करुणा की,
बनी सदा यह परिभाषा।
शांत, सरल, कोमल भावों की,
बनी सदा ही यह आशा।

संभावों से संवादों तक,
सदा यहाँ आलोकित हिन्दी।
संस्कार की मृदु सुगंध में,
पली बढ़ी शृंगारित हिन्दी।

तुलसी, सूर, बिहारी, भूषण,
सबने मिल कर किया शृंगार।
प्रेमचंद, दिनकर, महादेवी,
पंत लेखनी बनी आधार।

बच्चन और निराला पूजे,
इसके ही कण-कण का नाद।
गुप्त, सुभद्रा, माखन जी ने,
लिखे काव्य के नव संवाद।

नव संवादों में हो वर्णित,
बनी यहाँ उच्चारित हिन्दी।
संस्कार की मृदु सुगंध में,
पली बढ़ी शृंगारित हिन्दी।

गीत, राग नव बनी कथाएँ,
बने नाद, मानस, गीता।
बना काव्य, जन-जन की वाणी,
बनी अति प्राचीन पुनीता।

खण्डकाव्य अरु महाकाव्य भी,
बने इसी से द्रुत विन्यास।
बनी कहानी, स्वर व्यंजन सब,
बने यहाँ अद्भुत उपन्यास।

प्रातः, रात्रि, सायं बेला पर,
सदा रची विस्तारित हिन्दी।
संस्कार की मृदु सुगंध में,
पली बढ़ी शृंगारित हिन्दी।


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