घर के पीछे आम हो, और द्वार पर नीम,
एक वैद्य बन जाएगा, दूजा बने हकीम।
पीपल की ममता मिले, औ बरगद की छाँव,
सपने आएँ सगुन के, सुख से सोए गाँव।
पेड़ लगा कर कीजिए, धरती का सिंगार,
पल-पल देती रहेगी, ममता लाड़ दुलार।
सागर है पहचानता, वन के मन का मोह,
हरकारे ये मेघ के, धोते तप्त विछोह।
कुआँ चाहिए गाँव को, ताल तलैया बाग़,
ज़िंदा रहता प्राण में, है इनसे अनुराग।
पंछी प्यासे न रहें, भूखे रहें न ढोर,
कसी जीव से जीव तक, मानवता की डोर।
अगर आदमी चाह ले, मरु को कर दे बाग़,
धौरे गाने लगेगें, हरियाली का राग।
मत बनने दो प्रगति को, कांधे का बैताल,
पूँजीवादी दौड़ में, मानवता बेहाल।
नदियों को बाँधो नहीं, काटो नहीं पहाड़,
जीवन के होने लगे, गड़बड़ सभी जुगाड़।
बैठा हुआ मुड़ेर पर, सगुन न बाँचे काग,
आँगन के मन टीसता, गौरइया का राग।
ममता शर्मा 'अंचल' - अलवर (राजस्थान)