विच्छिन्ति! सुनो ऐ कवि मन की,
किस विधि से तुझे सजाऊँ मैं।
इस सकल सृष्टि में नव-निर्मित,
उपमान कहाँ से लाऊँ मैं।
है चंद्र पूर्णिमा का धूमिल,
है कोयल की न कूक नवल।
निष्प्राण हुए उपमान स्वयं,
अब कैसे कह दूँ तुझे कँवल।
जो थे शृंगारित कभी पुष्प,
हो चुके आज हैं कान्तिहीन।
जो दीपशिखा थी उन्मादित,
हो चुकी आज है प्रभाहीन।
उस प्रभाहीन सी रेखा से,
कैसे आधार बनाऊँ मैं।
विच्छिन्ति! सुनो ऐ कवि मन की,
किस विधि से तुझे सजाऊँ मैं।
है नदी धार भी विशृंखलित,
तुझसी न दिखती कोई प्रति।
स्वर, नाद, ताल, सुर लालायित,
बनने को तेरी ही अनुकृति।
तू कला मुग्धता, सौम्या तू,
कैसे कह दूँ तुझको जड़ता।
हुए इन्द्रधनुष के वर्ण मलिन,
कैसे कह दूँ तुझको दृढ़ता।
इन दृढ़ उपमानों को कैसे,
तेरा उपहार बनाऊँ मैं।
विच्छिन्ति! सुनो ऐ कवि मन की,
किस विधि से तुझे सजाऊँ मैं।
प्राचीन हुए प्रकृति के कण,
पवनों ने निज पथ मोड़ दिया।
कैसे कह दूँ तुझे भ्रमरगीत,
भ्रमरों ने गुंजन छोड़ दिया।
बादल की उपमा कैसे दूँ,
जिसका गर्जन भी शांत हुआ।
कैसे कह दूँ पाथेय तुझे,
जो स्वयं पथों से भ्राँत हुआ।
इस भ्राँत पथिक की उपमा से,
अब कैसे मान बढ़ाऊँ मैं।
विच्छिन्ति! सुनो ऐ कवि मन की,
किस विधि से तुझे सजाऊँ मैं।