स्वयं के भीतर शिव को खोजूँ - कविता - चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव
सोमवार, अप्रैल 28, 2025
स्वयं के भीतर शिव को खोजूँ,
ख़ुद वैरागी हो जाऊँ।
मोह-मृग की माया त्यागूँ,
शून्य में लय हो जाऊँ॥
मन-वेदी पर दीप प्रज्वलित,
शुद्ध प्राण का मंत्र बहे।
तांडव की उस लय में बहकर,
हर संकल्प, विकल्प दहे॥
गूँजे भीतर नाद अनाहत,
श्वास-श्वास हर मंत्र बने।
तांडव की उस लय में खोकर,
राग-द्वेष सब अंत बने॥
गंगा जैसी निर्मल धारा,
मन की वीणा छेड़ दूँ।
शिव-शिव जपते कंठ मेरे,
जग को नव संदेश दूँ॥
त्रिनेत्र खोलूँ सत्य दिखेगा,
मिथ्या जग का भेद मिटे।
अहंकार की राख लगा के,
अमृत-शिव से हृदय जुड़े॥
स्वयं को यदि जीत सकूँ तो,
त्रिभुवन मेरा दास बने।
ब्रह्म बने जो शंकर-शंकर,
मुझमें उनका वास बने॥
स्वयं के भीतर शिव को खोजूँ,
ख़ुद वैरागी हो जाऊँ॥
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