झाँसी न दे पाऊँगी - कविता - राघवेंद्र सिंह
सोमवार, दिसंबर 11, 2023
जब भारत पर अंग्रेजों ने,
निज अधिकार जमाया था।
राज्य हड़पने की नीति को,
गोरों ने बनवाया था।
तब झाँसी की एक नायिका,
क्रान्ति ज्वाल बन चमकी थी।
अंग्रेजों की नीति कुचलने,
विद्युत बनकर दमकी थी।
पता चला जब अंग्रेजी दल,
झाँसी की है ओर बढ़ा।
कर में वह तलवार, तीर ले,
अपना एक नव रूप गढ़ा।
बोली रानी मातृभूमि पर,
तिल-तिल मैं मिट जाऊँगी।
झाँसी को लेने वालों मैं,
झाँसी न दे पाऊँगी॥
झाँसी की एक महा ज्वाल ने,
क्रोध अग्नि बन हुँकारा।
अंग्रेजी हिल उठा सिंहासन,
जब रानी ने ललकारा।
रण चण्डी रणभूमि काल बन,
सदा सचेतन रहती थी।
सुनो फ़िरंगी आस छोड़ दो,
अंग्रेजों से कहती थी।
झाँसी को पा लेना गोरों,
बच्चों का है खेल नहीं।
आती नहीं ये समझ ना लेना,
कसनी मुझे नकेल नहीं।
रक्त की अंतिम बूँद से मैं तो,
धरा स्वयं रंग जाऊँगी।
जब तक साँस रहेगी मुझमें,
झाँसी न दे पाऊँगी॥
यदि तुम्हारी अल्प दृष्टि भी,
पड़ी कभी इस झाँसी पर।
या तो ये तलवार चलेगी,
या चढ़वाऊँ फाँसी पर।
अबला हूँ यह समझ न लेना,
हर पौरुष पर भारी हूँ।
बचपन से ही समरभूमि की,
बरछी, ढाल, कटारी हूँ।
वीर शिवाजी की हर नीति,
देशभक्ति मतवाली हूँ।
मैं राणा प्रताप का भाला,
मैं ही दुर्गा काली हूँ।
मातृभूमि की रक्षा हेतु,
प्रण वो सदा निभाऊँगी।
शीश भले कट जाए किन्तु,
झाँसी न दे पाऊँगी॥
डलहौजी की हड़प नीति को,
रानी ने कुचला मन से।
व्याल काल विकराल रूप धर,
मंशाएँ कुचली तन से।
अभी समय है शेष तुम्हारा,
लौट जाओ अपने घर को।
यदि तलवार उठा ली मैंने,
धड़ से अलग करूँ सर को।
देख एक क्षत्राणी कौशल,
गोरे वे सब काँप गए।
घोड़ों की टापें सुनकर ही,
रानी को वे भाँप गए।
लगा तिलक मैं मातृभूमि का,
कण को ढाल बनाऊँगी।
प्राण न्यौछावर कर जाऊँगी,
झाँसी न दे पाऊँगी।
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