गाँव की छाँव - कविता - राजेश राजभर

गाँव की छाँव - कविता - राजेश राजभर | Village Kavita - Gaanv Ki Chhaanv - Rajesh Rajbhar | Hindi Poem On Village. गाँव पर कविता
अब नहीं रहना चाहता, कोई गाँव में,
आम, नीम, पीपल, महुआ की छाँव में।
क्या यही यथार्थ है! हमारे गाँव का!
शहर जा रहा, हर आदमी तनाव में।
अब नहीं रहना चाहता, कोई गाँव में॥

पनघटों पर अब नहीं पानी की प्यास,
हल जोताई छोड़! नहीं हरवाहा उदास।
दूरियाँ घटने लगी, सेवक-बबुआई की–
आज संतति को यक़ीन है बदलाव में।
अब नहीं रहना चाहता, कोई गाँव में॥

घुघूरी चटनी, चोखा, चोटा कौन पीए,
बंधुआ मज़दूरी जीवन कौन जिए।
टूट रहा अभिमान, भहराई ज़मींदारी,
बन्धन मुक्त तरुणाई, उड़ती असमान में।
अब नहीं रहना चाहता कोई गाँव में॥

ऊँच-नीच हुक्का-पानी जटिल कुरीति,
अर्थहीन है पाखंडों की खंडीत नीति।
असंख्य प्रतिभाओं के धनी "तरुण",
रुचि नहीं रखते! जातिवादी टकराव में।
अब नहीं रहना चाहता, कोई गाँव में॥

अंततः गाँव भी स्वीकार करेगा नवयुग,
समानता के पथ पर खड़ा होगा धर्मयुग।
सड़ी-गली रूढ़िवाद से निजात मिलेगी,
एक दिन बदलाव होगा, हमारे स्वभाव में।
अब नहीं रहना चाहता, कोई गाँव में॥

राजेश राजभर - पनवेल, नवी मुंबई (महाराष्ट्र)

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