निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
हर काव्य स्वयं शृंगारित हो,
हृदयारित-पथ पर है चलता।
सिंचित हो करुणा-ममता में,
हो जाता पृष्ठों पर अंकित।
देता हर क्षण वह शीतलता,
अम्बर में जैसे शशांकित।
हर लेता उद्भित तमस-जाल,
देता सम्भवतः नव-प्रकाश।
स्वच्छंद-कल्पना में बँधकर,
देता विश्रंभी नवल-श्वास।
बन इंद्रधनुष के सप्त-वर्ण,
बनता नव-कल्पित विह्वलता।
निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
अनुभूति, भाव कर आलोकित,
पद-चिन्हों का देता परिचय।
मृदु स्वेद कणों को चुन-चुन कर,
कर जाता अपना पथ निश्चय।
स्पन्दन, निस्पंदन, प्रतिध्वनि,
पथ के साथी, मधुशाला सा।
दिग्भ्रांत नहीं होता पथ से,
महादेवी, पन्त, निराला सा।
दिनकर-सा तेज़ लिए संग में,
चपला सी लेकर चंचलता।
निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
क्रंदन से झरता दृग-पराग,
चातक की बनता स्वाति आस।
प्रण बनकर, प्राणाधार स्वयं,
प्रतिबिम्ब-बिम्ब बनता उजास।
ले स्वयं शून्यता शिखर-धार,
सौरभ, सुषमा ले स्वप्न-हार।
अस्तित्व स्वयं की ले निजता,
चिर-विह्नसित ले स्निग्ध-सार।
अंतस्थल से प्रण-स्थल तक,
चिर! सृजन तेरी है निर्मलता।
निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)