जेठ अषाढ़ी सावन बरसे
बरसे अर्ध कुँवार,
आसमान में चातक घूमे
धरती करे पुकार।
हे इंद्रराज! अब करो तृप्त
तुम मेरे हे प्राण,
मनुज-मनुज ही है मेघों
करता मन के भेद।
वो कर्म अर्थ के मोह में
उसे नहीं सत्य का भेद,
तब-तब धरा पे मनुज
खुलते हैं सब भेद।
ज्यों झूठ की बुनियाद पर
हैं बनाते रहें मकाँ,
जेठ अषाढ़ी सावन
खोले उनके भेद यहांँ।
कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)