अनूप अम्बर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)
मैं कान्हा बोल रहा हूँ - कविता - अनूप अंबर
बुधवार, सितंबर 06, 2023
लोग मुझे कहते हैं कान्हा मुरलीधर श्याम,
लेकिन मेरा जीवन था बिल्कुल न आसान।
जन्म से पहले मेरी, मृत्यु के विधान बने,
मेरे ख़ुद के मामा, मेरे प्राणों के काल बने।
मैं सारे जग का भाग्य विधाता,
कारागार में आँखें खोल रहा हूँ,
मैं कान्हा बोल रहा हूँ, मैं कान्हा बोल रहा हूँ।
जन्म हुआ पर माँ का दूध भी न पी पाया,
और तात के बाहों में दो पल भी न रह पाया।
भादों की थी झड़ी लगी, फिर तात ने मुझे उठाया,
सूप रख कर बासुदेव फिर, मथुरा से गोकुल लाया।
उफान मार रही थी यमुना, ये देख के दिल घबराया,
विकट परिस्थितियों से लड़ के वो मेरी जान बचाया।
मुझे लिटा कर पालने में, वो कन्या को उठाते है,
जाते जाते मेरे सिर पे, स्नेह से हाथ फिराते है।
मैं नन्हें-नन्हें हाथों से, उनको रोक रहा हूँ,
मैं कान्हा बोल रहा हूँ, मैं कान्हा बोल रहा हूँ।
अभी आठ दिन नहीं हुए, पूतना मौसी आती है,
विष को लगा कर मुझको, वो स्तनपान कराती है।
और राक्षसी प्रवत्ति फिर अपनी दिखलाती है,
मैं ऋणी हुआ उसका, उसे स्वर्गलोक पहुँचाता हूँ।
अपनी यशोदा मैय्या की गोदी में खेल रहा हूँ,
मैं कान्हा बोल रहा हूँ, मैं कान्हा बोल रहा हूँ।
मामा कंस नित्य बड़े-बड़े असुरों को भिजवाते है,
मुझे मारने के ख़ातिर जाने कितनी जुगत लगाते है,
सब के सब मेरे हाथों से, सीधे परमधाम को जाते हैं।
बचपन की लीलाओं से, सबके मन को मोह रहा हूँ,
मैं कान्हा बोल रहा हूँ, मैं कान्हा बोल रहा हूँ।
मैं घनश्याम सबको एक समान प्रेम मैं करता हूँ,
'मैं सबका सब मेरे है' ये सबसे कहता रहता हूँ,
इसलिए चक्र के साथ मैं मुरली को भी रखता हूँ।
अधरों पर रख बंशी प्रेम की भाषा बोल रहा हूँ,
मैं कान्हा बोल रहा हूँ, मैं कान्हा बोल रहा हूँ।
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