जो पीछे रह गए - कहानी - डॉ॰ अबू होरैरा

जो पीछे रह गए - कहानी - डॉ॰ अबू होरैरा | Hindi Kahani - Jo Peechhe Rah Gae - Dr Abu Horaira
[1]
दिल्ली हवाई अड्डे पर लोगों का हुजूम अड्डे से बाहर आ रहा था और जा रहा था। चूँकि राजधानी थी इसलिए भीड़ भी ज़्यादा थी। कोई किसी को देखकर मुस्कुरा रहा था तो कोई किसी को छोड़कर रो रहा था। यही क्रिया सुबह-शाम प्रतिदिन चलती रहती है। उसी भीड़ में मैं भी अपने बचपन के दोस्त को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा था। काफ़ी कोशिशों के बावजूद वह दिखा नहीं। फिर अचानक ही एक भरे-पुरे बदन और लंबी दाढ़ी वाला युवक मेरे सामने प्रकट हुआ। उसने सलाम करते ही बोला- “का बे पहचाने नाहीं का?” 
मुझे मेरी बोली लगी। इसलिए झट से सवालिया नज़रों से देखते हुए मैंने बोला- “इरफान?”
उसने कहा- हँ बे। 
“तं तो एकदम बदल गए बे। लंबी-लंबी दाढ़ी एकदम मुल्ला टाइप से और उप्पर से एतने मोटे। कवन चक्की का आटा खात रहे कि एकदम बदल गए।” मैंने एक साथ कई सवाल दाग दिए।
वह मेरी बातों का उत्तर देने के बजाए ख़ुद ही सवाल करने लगा- “नई दिल्ली रेलवे स्टेशन यहाँ से केतनी दूर ह।”
शायद उसे जल्दी थी घर पहुँचने की। और क्यों न हो घर जल्दी पहुँचने की। पूरे दस वर्ष का प्रवास झेलकर वह लौटा था।
मैंने बोला- “यहाँ से डायरेक्ट मेट्रो ह। चल ओहि से च ल ते।” 
फिर हम दोनों रेलवे स्टेशन की तरफ़ निकल गए। बातों ही बातों में उसने बताया कि यार अपना देश अपना ही होता है। यहाँ आते ही एक सुकून सा मिल जाता है। ऐसा लगता है माँ ने आग़ोश में ले लिया हो। स्वयं में सुरक्षा की भावना प्रबल हो जाती है। इसलिए अब जो भी हो, कहीं और नहीं जाना। यहीं माँ की गोद में ही रहना है। मेरे लिए मेरा देश ही महान है। परदेस में ग़ुलामी करना काफ़ी दुखदायी है। एक तो जानवरों की तरह काम करवाते हैं दूसरे इतनी नीची निगाह से देखते हैं मानो, हम इंसान हैं ही नहीं।
वह मन ही मन बहुत ख़ुश भी था। उसके चेहरे की मुस्कान उसके दिल में छिपी बेताबी को दर्शा रही थी। मुझे आज भी अच्छे से याद है। जब वह खाड़ी देश के लिए जा रहा था। तब उसकी उम्र यही कोई सोलह वर्ष की रही होगी। घर की परिस्थितियों ने उसे विवश किया था परदेस में ग़ुलामी के लिए। वह जाना नहीं चाहता था। उसे अपनी माँ और भाई-बहनों के क़रीब रहकर ही जीवन के कटु सत्य को झेलना था। पेट में जब आग लगी हो तो उसे बुझाना पड़ता ही है। उस आग को बुझाने के लिए कोई न कोई रास्ता तो अख़्तियार करना ही था। सो उसके सामने विदेश का ही रास्ता खुला मिला था। वह घर पर रहकर करता भी क्या? साड़ी का कारोबार तो औंधे मुँह गिर रहा था। मज़दूर बुनकर परेशान थे। सब कहीं न कहीं ग़ुलामी के लिए जा ही रहे थे और बहुत सारे तो जा भी चुके थे। ऐसा लग रहा था मानो इनके भाग में विधाता ने बेवतनी लिख दी हो। 
इरफान के लिए जाना इसलिए भी ज़रूरी था कि उसके सर पर पिता का साया न था। घर की बदहाली का बोझ इसी मासूम के कंधे पर था। ऊपर से साल दर साल हुए कई अबोध भाई-बहन। उसके पिता का साया उठे दो वर्ष हुआ था। उनको भी ग़रीबी ने ही लील लिया था। घर की तंगहाली और रोज़गार न मिलने की वजह से ही उसे विदेश जाना पड़ा था। वह तैयार तो हो गया था बाहर जाने के लिए। किन्तु बाहर जाने के लिए बालिग होना भी तो ज़रूरी था, साथ ही एक मोटी रक़म भी। क़रीब-पास के लोगों ने पासपोर्ट पर उसकी उम्र बढ़वाकर उसे व्यस्क बना दिया था।
अचानक से मेरी तंद्रा टूटी। मेट्रो में ऐलान हो रहा था। “नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरने वाले यात्री कृपया ध्यान दें। दरवाज़े बाईं तरफ़ खुलेंगे।”
मैंने इरफान से कहा- “चल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन आ गवा ह।” 
वह भी किसी गहरे ख़्यालों में डूबा हुआ था। अचानक मेरे बोलने से वह हड़बड़ाते हुए सवालिया नज़रों से पूछा- “आ गवा?”
“हाँ, जल्दी उतर।” मैंने बोला।
फिर हम दोनों रेलवे स्टेशन की जानिब रवाना हो गए। ट्रेन शाम की थी और हम एक घंटा पहले स्टेशन पर पहुँच चुके थे। उसके लिए मैंने रास्ते का कुछ ज़रूरी खाने का सामान ले लिया था। ताकि उसे किसी तरह की कोई दिक्कत न हो। फिर उसे ट्रेन में बिठाकर मैं अपने गंतव्य की ओर और वह अपने गंतव्य की ओर हो लिया।
भारतीय रेलवे में भीड़ का होना स्वाभाविक था। किंतु उस दिन भीड़ कुछ ज़्यादा ही थी। उसका कारण था- भारतीय पर्व।

[2]
रात क़रीब ग्यारह बजे मेरे फ़ोन की घंटी बजी। मैंने कॉल रिसीव करके बोला- “हेल्लो।”
उधर से एक मोटी और रोबदार आवाज़ आई और मुझसे पूछा- “क्या आप आदिल बात कर रहे हो?”
“हाँ जी। बोल रहा हूँ।”
दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई- “आपका नम्बर मोबाइल में सबसे ऊपर था। इसलिए आपको कॉल किया गया है। मैं रेलवे सुरक्षा बल टेसला स्टेशन से बात कर रहा हूँ।” 
“जी, बताइए क्या बात है?” मैंने पूछा।
“हमें एक लाश रेलवे ट्रैक पर मिली है। पासपोर्ट पर इरफान नाम लिखा है। क्या आप जानते हैं?”
इतना सुनते ही मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। हाथ काँपने लगे। 
वह उधर से “हेल्लो... हेल्लो... बोल रहा था। 
ज...ज.. जी... जी... मेरा दोस्त है। क्या हुआ है उसको?”
“बताया तो रेलवे ट्रैक पर उसकी लाश मिली है।” 
“आप मृतक के घर वालों को सूचित कर दीजिए।” 
“हम लाश को पोस्टमार्टम के बाद सुबह तक घर पहुँचवा देंगे।” ये कहकर उसने फ़ोन रख दिया।
मेरे सामने एकदम अँधेरा छाया हुआ था। मानो बदन में जान न हो। एक दोस्त जिसको कुछ घंटे पहले मैं स्टेशन पर छोड़कर आया था। उसके बारे में ऐसी ख़बर। एक दोस्त जो इतने वर्षों तक घर से दूर रहकर घर बनाने के प्रयास में था। घर के नज़दीक होकर उसका प्रयास बेकार हो गया। एक दोस्त जिसकी माँ और भाई-बहनों ने जबसे दुनिया देखी है, तब से अभाव ही देखा है। एक दोस्त जो घर के रौशन चिराग़ की तरह था। आज वह हमेशा के लिए बुझ गया था। मुझे चक्कर आ रहा था। मन में उहापोह जारी था। कैसे उसकी माँ को फ़ोन करके कहूँ? फिर घर पर भी इत्तेला देना तो ज़रूरी था। ज़हर का घूँट तो पीना ही था। जो हो चुका था उसे बदला तो नहीं जा सकता था। फिर भी हिम्मत नहीं हुई। इसलिए मैंने पड़ोस के घर में इत्तेला देकर दिल्ली से ट्रेन तक का सफ़र और ट्रेन से गिरने का अहवाल बता दिया। अभी थोड़ी ही देर हुआ होगा कि इरफान के अम्मा की कॉल मेरे मोबाइल पर आने लगी। मुझमें हिम्मत न थी कि कॉल का जवाब दे सकूँ। मैं इसके लिए भी तैयार था कि जैसे ही उन तक सूचना पहुँचेगी मेरे पास कॉल आएगी ही आएगी। इसलिए पूरी हिम्मत जुटाई और ख़ुद को संभालते हुए कॉल रिसीव की। रिसीव होते ही एक मजबूर माँ की आसमान को चीर देने वाली दहाड़ सुनाई पड़ी। मुसीबतें जीवन में कम थीं क्या? जो यह पहाड़ टूट पड़ा। मेरे पास शब्द नहीं थे। मैं क्या समझाता? मैं ख़ुद नहीं संभल पा रहा था। मैं अगर बोलना भी चाहता तो ऐसा एहसास होता कि मैं गूँगा हो गया हूँ। मुझे रोने के अलावा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मैं कुछ न बोल सका। दो शब्दों का दिलासा भी न दे सका। बस इतना ही कह सका कि मैं सुबह पहुँचने की कोशिश करता हूँ। तुरंत ही ज़रूरत का सामान पैक करके मैं रेलवे स्टेशन की तरफ़ निकल चुका था।

[3]
एक माँ का जीवन ख़त्म हो गया था। उसके बच्चों का वर्तमान और भविष्य नरक हो चुका था। जीते जी ही उस परिवार ने नरक का भयानक भोग कर लिया था। अब इससे ज़्यादा नरक का क्या दुख होगा। उस एक जान ने पूरे परिवार की जान ले ली थी। मैं सुबह जब घर पहुँचा तो देखा लाश आ चुकी थी। शरीर छलनी था। जगह-जगह धागों से सिला गया था। उसकी माँ बेहोश पड़ी थी अपने प्यारे के पैरों के पास। मासूम बच्चे अपनी माँ के सिरहाने रो रहे थे। चारों तरफ़ सन्नाटा था। लोग एक दूसरे से यह कहकर अपना दुख प्रकट कर रहे थे कि जाने दो इसी बहाने लिखी थी। होनी को कौन टाल सकता है। 

[4]
अगले दिन अख़बार की सुर्खी आयी। “खाड़ी देश से लौट रहे युवक की ट्रेन से गिरकर हुई मौत।” अब तक तो सब यही मान रहे थे। लेकिन मुझे खटका लगा था। वह क्यों अपना सारा सामान छोड़कर दरवाज़े पर जाएगा। मुकामी लोगों में भी सुगबुगाहट थी। बात तो अनहोनी थी, लेकिन घटना अनहोनी नहीं लग रही थी। ऐसा लग रहा था कि महकमे द्वारा कुछ न कुछ दाल में काला है जो छिपाया जा रहा है। चर्चाओं का दौर था। सभी एक दूसरे से क्यास के आधार पर बात कर रहे थे। लेकिन कोई पुख़्ता जवाब लोगों के पास न था। इतने में एक युवक मेरे पास आकर ठहरा। उसने पूछा- “इरफान, जिनकी मृत्यु हो गई है उनका घर कहाँ है?”
मैंने बोला- “जी। बताइये क्या बात है?”
मुझसे उनके घर वालों से बात करना है।
मैं उसे घर में ले गया। उसने अपना नाम संतोष बताया था। 
फिर वह ट्रेन में हुई घटना के बारे में बताने लगा-
“मैं भी ट्रेन में इरफान की बगल वाली बर्थ पर था। कुछ ही लम्हों में उससे दोस्ती हो गई थी। उसने मुझे बताया था कि मैं खाड़ी देश से पूरे दस साल बाद आ रहा हूँ। मैं घर में सबसे बड़ा हूँ। मेरे पिता जी का इंतेक़ाल हो गया है। वह अपने बारे में बता ही रह था कि कुछ युवक ट्रेन में बिना टिकट ही हमारी बर्थ पर धड़ल्ले से आकर बैठ गए थे। उन लोगों ने पूरी बोगी में उत्पात मचा रखा था। सर पर टोपी और दाढ़ी रखे इरफान पर उन सबकी नज़रें जम गई थीं। फिर क्या था? उन्होंने इरफान को सताना शुरू कर दिया। उसकी दाढ़ी देखकर वे माँ-बहन की गालियाँ दे रहे थे। 
उनमें से एक ने कहा- “इन ग़द्दारों को इस देश से निकाल देना चाहिए।” 
दूसरा बोला- “इन आतंकवादियों को पाकिस्तान भेज दो।” 
तीसरा थोड़ा और आगे बढ़कर बोला- “इन सबको चौराहे पर खड़ा करके गोली से भून देना चाहिए।” 
“क्यों बे साले, कहाँ से आ रहा है? किस मदरसा से आतंकवाद की ट्रेनिंग लेकर आ रहा है? कहाँ बम फोड़ेगा बे? हराम के जने।" ये कहते हुए उसने एक ज़ोर का थप्पड़ मारा। इतने में दूसरे ने उसकी दाढ़ी पकड़कर सीट से नीचे गिरा दिया। फिर क्या था। लात-घूँसों की उस पर बरसातें शुरू हो चुकी थीं। सफ़र ने उसे एहसास दिल दिया था कि उसके लिए मुसलमान होना ही सबसे बड़ा गुनाह है। 
वह उनके सामने गिड़गिडा रहा था। “मेरी माँ मेरे इंतेज़ार में बूढ़ी हो चुकी है। अब उसे और ताब नहीं है कि वह इंतेज़ार करे। उसकी आँखों की रौशनी जा रही है। मेरे छोटे-छोटे भाई बहन बड़े हो गए हैं। उनके इंतेज़ार ने मुझे पागल बना दिया है। भाई आप लोग मेरा सारा सामान और कमाई ले लो। कम से कम मुझे मेरी माँ और भाई-बहनों से मिलने तो दो। दस साल का समय अपने आप में बहुत ग़म और तकलीफ़ समेटे हुए है। मैंने जो परदेस में रहकर झेला है उससे ज़्यादा मेरी माँ ने झेला है। लेकिन उन लोगों ने उसकी एक भी न सुनी। वह लहूलुहान था। उनके सामने जीवन की भीख माँग रहा था। वह बेबस हो चुका था। उन पर शैतानियत छाई हुई थी। उसके बेहोशी में जाने पर उन लोगों ने उसे चलती ट्रेन से फेंक दिया था। संतोष की आँखें डबडबाई हुई थी। वह लगातार रो रहा था और माफ़ी माँगे जा रहा था। वह अख़बार में छपी सुर्खी ही देखकर आया था।

डॉ॰ अबू होरैरा - हैदराबाद (तेलंगाना)

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