याचना - ताटंक छंद - संजय राजभर 'समित'

जीवन क्या है यही समझने, 
गंगा जल भर लाया हूँ। 
महादेव! मैं याचक बनकर, 
तेरे दर पे आया हूँ। 

बने न बंजर धरती सारी, 
विष का प्याला पी डाला। 
कंठ बीच ले नीलकंठ बने, 
हुई शांत जलती ज्वाला। 

हे! संहार कर्ता अविनाशी, 
कण-कण में तुझे पाया हूँ। 
महादेव! मैं याचक बनकर, 
तेरे दर पे आया हूँ। 

नहीं माँगता झोली भर दो, 
तत्व ज्ञान का राही हूँ। 
भव सागर के उस पार चलूँ, 
दृढ़ संकल्पित माही हूँ। 

चीर सकूँ सहज घन तिमिर को, 
हर-हर अलख जगाया हूँ। 
महादेव! मैं याचक बनकर, 
तेरे दर पे आया हूँ। 

बेल पत्र औ' चिलम धतूरा, 
बम-बम भोले गाता हूँ। 
अपनी मस्ती अपनी वाणी, 
तुझमें ध्यान लगाता हूँ। 

पागल कोई कहता है पर, 
औघड़ सा ही छाया हूँ। 
महादेव! मैं याचक बनकर, 
तेरे दर पे आया हूँ। 


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