हिंसा - कविता - रौनक द्विवेदी

हिंसा को ना बनाओ यारों जीवन का हिस्सा,
वर्ना बिखर जाओगे जैसे टूट कर शीशा।
हिंसा को ना बनाओ यारों जीवन का हिस्सा।

आग में उसकी डाल के पाँव,
जल गए कितने शहर और गाँव।
आँच से उसकी जहाँ भी लगे ताव,
सूख गई धरती रही न अब छाँव।
हिंसा को ना बनाओ यारों जीवन का क़िस्सा,
वर्ना बिखर जाओगे जैसे टूट कर शीशा।
हिंसा को ना बनाओ यारों जीवन का हिस्सा।

सह नहीं पाता कोई उसकी मार,
टूट गए कितने घर-परिवार।
रह नहीं पाता कोई साथी-रिश्तेदार,
लोग समझने लगते बेकार।
हिंसा को ना बनाओ यारों जीवन का इंशा,
वर्ना बिखर जाओगे जैसे टूट कर शीशा।
हिंसा को ना बनाओ यारों जीवन का हिस्सा।

रौनक द्विवेदी - आरा (बिहार)

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