है मित्र ही सुवृंद भी - कविता - राघवेंद्र सिंह

है मित्र ही सुवृंद भी,
है इत्र की सुगन्ध भी।
चरित्र में प्रबन्ध भी।
अनंतकोटि बन्ध भी,

है राम वो है, कृष्ण भी,
सुदामा की है तृष्ण भी।
स्वतंत्र रव है गिष्ण भी,
सरल, तरल नदीष्ण भी।

है नेह की वो वृष्टि भी,
भविष्य, भूत दृष्टि भी।
है साधना प्रविष्टि भी,
अनेक गुण समिष्टि भी।

है वेद, कर्म, यज्ञ भी,
है ज्ञान में वह प्रज्ञ भी।
है वह कुटिल, कृतज्ञ भी।
है दीप अंतरज्ञ भी।

मुखारबिंद कान्ति भी,
है छाँटता वह भ्राँति भी।
है युद्ध और क्राँति भी,
स्वतः स्वयं है शान्ति भी।

पथिक का पथ प्रदेय भी,
क्षमा वह शील, ज्ञेय भी।
है सांत्वना वह ध्येय भी,
है मित्रता का श्रेय भी।

है कल्पना, तुरीय भी,
जो है विचारणीय भी।
जो है प्रशंसनीय भी,
है मित्र वंदनीय भी।


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