आई थी मनभावन आँधी,
मेरे भी नीरस जीवन में।
जी भर उसने कोशिश की थी,
पर चमक नहीं थी सीवन में।
शंकाओं में पल बीत गए,
वो हार गए हम जीत गए।
था मान बड़ा ही आनन पर,
हो शासन जैसे कानन पर।
वो मस्त हवा में झूम रहे थे,
भ्रमरों का मुहँ चूम रहे थे।
कितने ही अलि देख रहे थे,
नयनों को बस सेक रहे थे।
अच्छी सीरत के साधक हम,
वो सूरत के व्यापारी थे।
जीवन पुष्प तलाश थे हम,
वो हर एक अलि पे भारी थे।
आकर मेरे दर पर उनका,
मद सारा चकनाचूर हुआ।
जो दर्प छिपा था भीतर मन,
वह पल में सारा दूर हुआ।
गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)