एक पहर, गर्मियों के दिन
तमतमाते धूप में दूर एक मज़दूर को भवन बनाते देखा,
झूलसती लू में न कोई छाया रंग-बिरंगी पगड़ी को देखा,
ढुलकते सीकर में भी एक मुस्कराता चेहरा देखा,
काम में लीन बच्चों के कुछ सपने और उम्मीदें उभरते देखा,
शाम के पहर,
चाय की दो घूँट में थकान को उतरते देखा,
मेहनत के कुछ पैसे पाकर चेहरे पर मुस्कराहट देखा,
ऊँचे भवन से सारी रंग बिरंगी की दुनिया को देखता,
लेकिन, न जाने क्यूँ ख़ुद को बेबस पाते देखा,
मैंने इस ज़िंदगी में कुछ का इतिहास बनते देखा, कुछ का जीवन ढहते देखा।
रूशदा नाज़ - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)