फिर से फिर - कविता - संजय कुमार चौरसिया 'साहित्य सृजन'

यूँ तो कविता जीवन में
अगणित आईं चली गई
पर ना आया कोई परिवर्तन;
इसको फिर से दोहराऊँ या 
सबके कानों में गुहार लगाऊँ। 
हे! उठो विश्व के भावी गण 
देखे रास्ता सम्पूर्ण प्रांगण, 
ऐसा कौन नहीं है, 
जो अव्यवस्था से मौन नहीं है। 
तुम थे सोने की चिड़िया, क्या 
ज्ञातव्य नहीं या भावों से
मुक्ति की चाह नहीं, 
फिर देखना चाहोगे? 
हड्डियों से माँस नोचना चाहोगे? 
सम्पूर्ण देश के भावी गण,
नींद को त्यागो कर लो प्रण;
आंहो में भर लो अमित चिंतन 
क्योंकि तुमको बनना है परिवर्तन, 
जलना सूरज का काम रहा, 
चलना तेरा स्वाभिमान रहा। 
यदि मैं दु तुम्हें अस्मिता बोध, 
उठ बनना तुम प्रतिशोध, 
तुम ख़ुद जागो बन नए यंत्र, 
सोचो ना अभी जागा गणतंत्र, 
होना ना है अब स्थिर, सब 
एक जुट बोलो फिर से फिर।। 

संजय कुमार चौरसिया 'साहित्य सृजन' - उन्नाव (उत्तर प्रदेश)

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