माँ - कविता - मेहा अनमोल दुबे

अब केवल स्मृतियों में शेष,
जीवन के अन्तर्भाव में निहित,
हर लेखनी कि अन्तर्दृष्टि में,
अब संसार कुछ नहीं,
बस तुम सब जगह शेष हो,
गंध और सुगंध सब में बस तुम विशेष हो,
विशेषताओं के सागर में तुम ही विशेष हो, 
स्मरण कुछ और नहीं, 
अब केवल तुम्हारे संस्मरण है,
समृद्धि में बस तुम्हारे आशीष है,
सम्पदा तुम्हारी सीख है,
आत्मबल अनुशासन सब संबंल, सब में बस तुम ही हो,
निर्झर सी बह रही हो सब जगह,
हर बात कह रही हो, सब जगह,
हृदय झरोखे से देखती हो सब जगह,
रहती हो अब सब जगह,
मुठ्ठी से मुठ्ठी तक ठहरती हर जगह,
आसमान में अब कोई है मेरा भी जो एक पहर चमकता है,
मामा के साथ मेरे वो हर जगह हँसता है,
अंतिम प्रहर में स्वप्न स्वरूप मिलता है,
मीमांसा और देह में भेद कहता है,
अच्युतम् गोपाल कृष्ण कि तरह
हर बयार हर घड़ी पुष्पित रहता है, 
ईश्वर अब मुझे भी दर्शन देता है, समय अब यथार्थ मे जीवंत रहता है,
मुझे नियोजित कर मन में विमुक्त होता है,
स्मृतियाँ और मनोभाव, हर शब्द यही कहता है,
यूँ तो शेष कुछ रहता नहीं,
पर शेष सब जगह रहता है।

मेहा अनमोल दुबे - उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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