हम उस युग के बेटे हैं - गीत - गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण'

हम उस युग के बेटे हैं जब, घर-घर घर होते थे।
घर के मालिक भी हम ही, हम ही नौकर होते थे॥

सबसे पहले माँ उठती जब, रात बीत जाती थी।
चकिया पर आनाज पीसते, हुए गीत गाती थी॥
बैल भैंस को बाँध पिताजी, ख़ुद सानी करते थे।
गोबर उठा बुहार कुएँ पर, जा पानी भरते थे॥
मम्मी पापा ही घर के, गौरी-शंकर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर-घर घर होते थे॥

दादाजी से मम्मी पापा, मन ही मन डरते थे।
तब हम ही दादा जी पर, दादागीरी करते थे॥
दादी चेहरा देख अनमना, यूँ उलाँट पड़ती थी।
निरपराध मम्मी पापा पर, बहुत डाँट पड़ती थी॥
अनुशासन से बँधे हुए सब, पर हम नट-नागर थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर-घर घर होते थे॥

सभी पड़ोसी चाचा चाची, बुआ बहिन चढ़कर थे।
ख़ास ख़ून के रिश्तों से भी, सगे और बढ़कर थे॥
पूरा गाँव लाड़ करता था, हम गर्वित होते थे।
प्रेम पहनते थे सब मन से, नफ़रत को धोते थे॥
मेरे दादा से डर-डर कर, डर बाहर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर-घर घर होते थे॥

पिज़्ज़ा बर्गर लिम्का कोको, कॉफ़ी चाय नहीं थी। 
रबड़ी कलाकन्द खाते थे, माँ असहाय नहीं थी॥
दूध दही घी छाछ मलाई, की नदियाँ बहती थीं।
बेशक मेहनत थी घर-घर में, पर ख़ुशियाँ रहतीं थीं॥
पक्की छत की जगह फूस के, कुछ छप्पर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर घर घर होते थे॥

गिरेंद्र सिंह भदौरिया 'प्राण' - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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