तुम्हें पाकर - कविता - प्रवीन 'पथिक'

तुम्हें पाकर,
लगता है ऐसे;
जैसे जीवन की परिभाषा बदल गई है।
अंतःकरण की रिक्तता,
पूर्णता में परिवर्तित हो गई है।
एक अज्ञात चिंता!
जो कुरेदती थी दिन रात,
अपने नामोनिशान तक नहीं छोड़े।
जिन्हें देखना पसंद नहीं था मुझे,
उनसे बात करना अच्छा लगता है।
मेरी आशाएँ, आकांक्षाएँ
कभी धुँधली तम के धागे की भाॅंति; 
होती थी दृष्टिगत।
यूॅं, दूर से किसी विजित योद्धा का,
लहराता हुआ विजय पताका दिखाई देती है।
तुम्हें पाकर,
लगता है, सूर्य ने अपना ताप कम दिया।
सागर ने अपनी विशालता कम कर दी।
और फैली प्राकृतिक विषमताओं ने,
अपने ऑंचल सिकोड़ लिए।
तुम्हें पाकर,
असंभवनाओं में भी एक विकल्प
दिखाई देता है।
कुरूपता में भी,
एक मधुरता दिखाई देती है।
और हर क्षण,
अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है।
जीवन यदि दुष्कर है!
तो एक अप्रत्याशित आनंद भी है।
सपने यदि विशाल है तो हर पथ प्रशस्त भी है।
उत्साहित मनः शक्तियों से हर प्रयास अपेक्षित है।
प्रारब्ध के पहियों का विश्रामस्थल नियति नहीं,
सिर्फ़ तुम हो।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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