समय धारा प्रवाह बहती नदी है - लेख - सुनीता भट्ट पैन्यूली

समय धारा प्रवाह बहती हुई अविरल नदी है जिसकी नियति बहना है जो किसी के लिए नहीं ठहरती है। हाँ! विभिन्न कालखंडों में विभाजित, विविध घाटों रूपी पड़ावों से टकराकर, अपने होने का आभास कराती हुई, जा पहुँचती है उस भवसागर में जिसका प्रारब्ध उस अदृश्य शक्ति ने या विधि के विधान ने सुनिश्चित किया है। जहाँ न अंत है न आरंभ है, न अफ़सोस की गुंजाइश है न हर्ष का पारावार, न किंतु-परंतु, न सवाल-जवाब, न उल्लसिता की कोई परिभाषा। 

सब कुछ छूटता चला जाता है। साथ बहकर जो चली आती हैं उस नदी के साथ तो वह हैं स्मृति खंड जिसके दाएँ बाएँ से होकर समय रूपी नदी ताज़िदगी बहती है। नदी रूपी समय की ख़ासियत है कि वह बहते हुए वापस तो देखती है मुड़कर किंतु  वह कभी पीछे नहीं लौटती है।

समय रूपी सरिता नव वर्ष और पुरातन वर्ष के संधि स्थल पर स्थिर हो जाती है कभी, शीतकाल में हिम नदी की मानिंद। नव वर्ष तो वह नहीं जानती क्या है किंतु रिक्तता में अनूकूलता को बिठाते हुए नव चेतना, नव उल्लास, उत्सव, प्रहसन से हष्ट-पुष्ट समय की प्रतीक्षा में नव और पुरातन के मध्य से क्षणिक सौंदर्य को निहार रही होती है। 

दरअसल सौंदर्यबोध हमारे अंतर्निहित विचारों में है, नववर्ष कोई मूर्त रूप नहीं है जिसके हाथ, मुँह, नाक, कान हैं वरन विचारों के गठजोड़ या बनने-बिगड़ने का ही तो प्रतिफल है।

मैं भी समय का ही प्रतिरूप, अत्यंत आशावादी नदी हूँ जो निहार रही है प्रकृति का प्रतिबिंब अपनी ही चंचल धारा में, अथाह सृजन के खेत हैं यहाँ, जहाँ नीड़ है मेरा, कर्मठता और कल्पनाशीलता के बीज बोना बाक़ी है यहाँ उस पल्लवित और आह्लादित जीवन के लिए, मेरे हिसाब से तो यही नवीनता का आगमन है जहाँ गन्ने के खेतों के बीच से दौड़कर गुज़रता रक्ताभ सूरज मेरी बाल्कनी के ठीक सामने सीधे मुझे हाथ हिलाकर धरती के क्रोड़ में समा जाता है कहीं। तब मुझे जाकर ज्ञात होता है कि शाम के पाँच बजे गए हैं अब बिस्तर छोड़ देना चाहिए सांध्यकालीन अर्चना के लिए, नियमबद्ध होना यानि समय की धूरी में घूर्णन करने का आभास यही तो है नव-बेला का आरंभ।

हतप्रभ सी हो जाती हूँ मैं जब वही डूबता सूरज फिर भोर की छटा बनकर, बालकनी को फाँदते हुए दरीचे से भीतर घुसकर कब मेरी आँखों में नव स्वप्न की रूप-रेखा बनाकर मेरे जीवन में सकारात्मकता का संचार कर जाता है और मुझे आभास भी नहीं होता है।

कहना मुनासिब होगा कि समय का लिबास बदलता है किंतु उसकी फ़ितरत नहीं बदलती है। पुराना अमूर्त रूप का समागम कहीं न कहीं नए के साथ होने का ही परिणाम है कि हमारे अवचेतन में असंख्य विचार संकरित होकर अर्धचेतना में ख़्वाबों का संसार रच डालते हैं। यह नवीन और पुरातन की जुगत से उत्पन्न हुआ क्षणिक सुखद, सकारात्मक अहसास और आशा ही तो नए समय की पदचाप है।

मेरे नीड़ में भोर का सूरज कभी कुहासे में नदारद भी रहता है किंतु उस पल कुहासे में धुँधले से दिखते गन्ने के खेत और उस पर मासूम सा एक निर्जन घर यक़ीनन एकाकीपन नहीं झेल रहा है, उसे तो इल्म ही नहीं कि वह प्रेरणा श्रोत है किसी सृजनशील मन के लिए। मेरे अनुसार पल-पल को जीना ही नवारंभ, नवयौवन है ज़िंदगी का, जहाँ संवेदना है, विचारों का प्रबल प्रवाह है, कल्पनाशीलता है, प्रकृति है, पक्षी हैं, जानवर हैं मनुष्यता को  कम से कम प्रेम और निष्कपटता रहित जीवन जीने का ढब सिखाने के लिए। मेरे घर में चिड़ियाएँ चीख़-चीख़ कर घर के हाते या सेहन को सर पर उठा लेती हैं बाजरे के इंतज़ार में, दो कुत्ते गेट से पीठ टिकाए गेट खुलने का और रोटी का इंतज़ार कर रहे होते हैं और रोटी मिलने पर पूँछ हिलाकर कृतज्ञता और स्नेह प्रदर्शित करते हैं। यही मूक संवेदन की भाषा को सीखना ही समय के नवखंड और ज़िंदगी के पायदान पर आदमियत का नवीन क़दम पड़ना है।

समय सर्वदा अभिजात नहीं होता है किंतु उसके साथ अनुकूलता बिठाने के लिए विशुद्ध दृष्टि और जीवन दर्शन की खोज नितांत ज़रूरी है।

नवचेतना एक दिन की नहीं सतत है। यह सोच पर निर्भर है, नवचेतना का श्रोत भौतिकता व मानवीय रिश्ते हों अवश्यंभावी नहीं। नवचेतना का श्रोत रात भर ओस में भीगी हुई गुलाब की पंखुड़ियाँ, हरे-भरे खेतों में परवाज़ भरते पाखीयों की पंक्तियाँ भी हो सकती हैं, परस्पर आलिंगन किए हुए दो पेड़ भी हो सकते हैं, कमल की पत्तियों में अटकी हुई ओस की बूँद भी हो सकती है कहने का तात्पर्य है कि यह केवल मन की सोच है जो ज़िंदगी को कभी धूमिल और कभी उजली देखती है। पुरानेपन को नई दृष्टि व नई योजनाओं के साथ देखना भी जीवन में नूतनता का प्रवेश करना है।

नव वर्ष और पुरातन वर्ष के संधिस्थल पर एक स्मृति स्तंभ हैं जहाँ हम सभी खड़े होते हैं पुराने वर्ष के कुछ अच्छे अंश के बीज लेकर भविष्य की ज़मीन पर बोने के लिए।

पुरातन हम क्यों साथ लेकर पदार्पण नहीं करना चाहते नव वर्ष की शुभ्र ड्योढ़ी पर? पुरातन की अपनी उपयोगिता है।

प्राचीन ही हमें प्रेरित करता है नव आरंभ के लिए अथार्त कुछ तिक्त कुछ बेतरतीब आधार ज़रूरी है जीवन में कुछ नया बुनने के लिए।

यह जिजीविषा, आरंभ अच्छा होने की, अच्छा करने की भ्रम है मनुष्यता का। मन हमारा स्थिर है, वहीं का वहीं टिका है जहाँ हम वर्षों पहले थे, नव वर्ष का आगमन तभी है जब जीवन को आँकने के लिए हमारे पास नव दृष्टि है, अविष्कार है, योजनाएँ हैं नहीं तो बस साल गुज़र रहा है। हमारी मान्यता, हमारी सोच वहींं बद्धमूल हैं पुराने समय से।

अंधकार और रोशनी के केंद्रबिंदु पर स्थित एक अदना सा प्रतीक है इंसान जिसकी धुरी चाँद और सूरज जैसी ज़िंदगी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है क्योंकि अपनी ज़िंदगी पर वह शोध नहीं करना चाहता इसलिए प्रसन्न भी नहीं है, वह नहीं जानता है कि बाहर से भीतर की ओर एक मंगल द्वार है जो उसके मनुष्य होने के लिए  मार्ग-दर्शन करने को आतुर है।

नव वर्ष न आरंभ है किसी सुभीते का, न अंत है किसी दुर्योग का बस मन का उत्साह व उदासी भर है। एक अवस्था है आने वाले समय के लिए स्वयं को तैयार करने हेतु। एक दृष्टिकोण है बदलाव लाने का बाह्य व भीतरी रूप से जिसके लिए पुराना ज़िम्मेदार नहीं वरन् संकल्पता, दृढनिश्चयता, स्थिरता, सामंजस्यता, प्रतिकूल परिस्थितियों व बदलाव की स्वीकार्यता है नवीनता के लिए।

पुरातन वर्ष एक दस्तावेज़ भी है हमारे अनुभव, हमारी स्मृतियों का जिसमें अनगिनत अनगढ़ा, अनसुलझा, कुछ तुर्श कुछ, सड़ा-गला, कुछ थोड़ा बहुत उपयोगी भी है। यह हमें तय करना है कि नवीनता की ड्योढ़ी पर हमें क्या-क्या साथ लेकर पाँव रखना है।

पुरातन में ही नवीनता का रहस्य छिपा हुआ है और नूतनता में ही उन्नति के गुर।
इसी नवीन और पुरातन के समागम में हम सभी के जीवन में कुछ विशिष्ट घटने की आशा लिए।
नव वर्ष हम सभी के लिए मंगलमय हो।

सुनीता भट्ट पैन्यूली - देहरादून (उत्तराखंड)

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