निशान - कहानी - हर्षवर्धन भट्ट

सुबह-सुबह जल्दी घर से निकल कर सीधे ऑफ़िस की मीटिंग में शिरकत कर एक विक्रेता के पास जाना है, बहुत ज़रूरी मीटिंग है। टाइम पर मशीन पार्ट्स की सप्लाई के ऊपर और साथ ही विक्रेता की कैपेसिटी और गुणवत्ता पर भी पूरा आँकलन करना है, क्यूँकि अपनी कम्पनी के उत्पादन को दुगुना जो करना है। सारी तैयारी हो चुकी है, और ख़ासकर अपने ख़रीदार को तैयार उत्पाद की सप्लाई पूर्ति पर भी वायदा कर चुके हैं।
 
घर से निकल ही रहा था तो पड़ोस के घर से चिल्लाने की आवाज़ आई, पहिले सोचा कि 'काके' जो पड़ोस में आठ साल का बच्चा है वह शरारत करते-करते चिल्लाता रहता है। इसलिए ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, पर रोने की आवाज़ कुछ भयानक सी लगी। थोड़ा रुका और दरवाज़ा खटखटा कर मामला जानना चाहा। दरवाज़ा खुला था तो देखा काके के दाएँ हाथ से ख़ून बह रहा था, पूरा फ़र्श ख़ून से लथपथ था। मैं घबरा गया, देखा तो दाएँ हाथ का पूरा माँस फटा है क़रीब एक फ़िट से भी ज़्यादा।
अंदर से सफ़ेद माँस पूरा दिख रहा था और ख़ून टपक रहा था। काके की माँ पास बैठी हाथ में उल्टा झाड़ू पकड़ कर बैठी जोर-जोर से चिल्ला कर रो रही थी। उसे और ख़ून को देखकर काके भी जोर-जोर से रो रहा था।
पहिले तो देख कर घबरा गया फिर देखा तो काके की माँ के हाथ में जो उल्टा झाड़ू था जिसके पीछे टीन की पट्टी खुली थी जिसकी वजह से पूरा हाथ का माँस कट गया था। माँ के बहुत जोर से पीटने की वजह से शायद काके का हाथ का माँस कट गया मगर काके के चेहरे पर कोई ज़्यादा शिकन नहीं, ना ही दर्द बस उसकी माँ पीटने के बाद सर पकड़ कर बीच-बीच में जोर-जोर से रोती जा रही थी और काके को बुरा भला कह रही थी।
एक के बाद एक-एक कर पड़ोसी महिलाएँ आवाज़ सुनकर दौड़ी चली आई और काके के हाथ से ख़ून देखकर वो भी घबरा गई।
“इसको तो जल्दी हॉस्पिटल ले जाना पड़ेगा, पर इतनी सुबह किसकी क्लिनिक खुली होगी। हाँ नील क्लिनिक हर वक़्त खुला रहता है, डॉक्टर तो होगा नहीं परंतु वहाँ पर वॉर्ड बॉय तो होगा ही वही डॉक्टर को घर से बुला लेगा।”
“क्लिनिक यहाँ से दूर है मगर जल्दी ले जाना पड़ेगा, ख़ून बहता भी जा रहा है।” ये सब महिलाएँ आपस में कह रही थी। मगर उनके घर से कोई पुरुष नहीं आया।
मैं मन में सोच रहा था की मेरी ऑफ़िस में ज़रूरी मीटिंग है कल शाम को निश्चित हो गया था जल्दी आना है, और अब सामने ये जटिल समस्या थी। पड़ोस में मेरे ही पास स्कूटर था, काके का पिता घर पर नहीं था किसी काम से बाहर गया था। यहाँ से नील क्लिनिक ४ किलोमीटर दूर और फिर उपचार, बहुत समय लगेगा, तब तक तो ऑफ़िस की मीटिंग निपट जाएगी।
बहर-हाल, काके को क्लिनिक ले जाना ज़रूरी है यहाँ से ऐसे चुपचाप नहीं खिसक सकता। जल्दी स्कूटर बाहर निकाल कर काके के हाथ में दुपट्टे का कपड़ा लपेट कर क्लिनिक के लिए चल पड़ा।
क्लिनिक पहुँचा तो वॉर्ड बॉय को डॉक्टर को जल्दी बुलाने को बोला तो पता लगा डॉक्टर कहीं बाहर गए हुए है कल तक लौटेंगे।"
“तो फिर” मैं लड़खड़ाते बोला “अब क्या करेंगे? आज ही सबको बाहर जाना था” मैं फिर बुदबुदाया।
“क्या हुआ हाथ पर, कहीं गिर गया था क्या? मैं देखता हूँ” और काके के हाथ का लपेटा कपड़ा उतारने लगा जो ख़ून से घाव पर चिपक सा गया था। मुझसे देखा नहीं जा रहा था परंतु मजबूरी थी फिर साथ में कोई और भी तो नहीं था।
“आपको बाहर से दवाई लानी होगी तुरंत”
“पर कहाँ से? सभी मेडिकल स्टोर तो अभी बंद है”
“यहाँ से २किलोमीटर दूर सीधे आगे ३२१ नम्बर के मकान में जावो और जल्दी दवाई ले आवो, तब तक मैं घाव को साफ़ करता हूँ क़रीब १५-१६ टाँके लगेंगे”
“ओह!  ठीक है मैं जल्दी दवाई ले कर आता हूँ”
काके अब दर्द से चिल्ला रहा था क्यूँकि घाव को जो छेड़ दिया था।
ऑफ़िस में कॉल करने का भी टाइम नहीं और ऐसी परिस्तिथि में करना भी नहीं चाहता, कहीं और क्लिनिक भी नहीं ले जा सकता वहाँ पर भी डॉक्टर न मिले तो!
३२१ कोठी नम्बर के घर के गेट पर खड़ा था, मन में ऑफ़िस का बार-बार ख़याल आ जाता मीटिंग शुरू हो गई होगी, मेरे अनुपस्तिथि देखकर सभी लोग सकपका गए होंगे क्यूँकि असली प्रेज़ेंटेशन मेरा ही होना था। पर ऑफ़िस से किसी का कॉल भी नहीं आया। शायद मीटिंग कैंसिल कर दी गई होगी। हो भी रही होगी तो अब तक तो सभी के फ़ोन साइलेंट मोड पर होंगे, लैंड लाइन से भी सम्पर्क नहीं हो सकता।
गेट पर लगी घंटी के बटन को बार-बार बजाने से एक जवान लड़का आँखे मूँदता बाहर आया और वॉर्ड बॉय की लिखी पर्ची को साथ ले कर अंदर गया और कुछ देर बाद दवाइयाँ ले कर बाहर आया, पैसे दे कर वापस क्लिनिक लौटा तो देखा तीन चार पड़ोस की महिलाएँ काके की माँ को लेकर ऑटो से वहाँ पहुँच चुकी थी।
वॉर्ड बॉय ने दर्द से चिल्लाते काके के हाथ पर दवाई लगा कर फटे हुए चमड़ी को सिलना शुरू किया इस दौरान महिलाएँ बाहर काके की माँ को कोस रही थी।
“इतना ग़ुस्सा भी ठीक नहीं काके की माँ! अब देखा बच्चे की हालत! पूरा माँस का चीथड़ा बाहर निकल आया है बच्चे को पीटना ही था तो झाड़ू के पीछे की तरफ़ से न पीटती।”
माँ को भी बड़ा अफ़सोस हो रहा था बोली “मुझसे ग़ुस्से में रहा नहीं गया, क्या करती? शरारत ही इतना कर रहा था, मुझे क्या पता था की झाड़ू का टिन खुल जाएगा और हाथ काट देगा और इतना सब हो जाएगा।”
अंदर टाँके लगाने का काम चल रहा था, डॉक्टर की देख रेख में वॉर्ड बॉय भी इन सब कामों में प्रशिक्षित हो जाते है और ज़्यादातर काम यही किया करते है।
क़रीब इक्कीस टाँके आए है इतना लम्बा कट।
बच्चा अभी भी कराह रहा था। इतना दर्द कैसे सहन होगा, घर पर ताज़ा घाव था तो सहन हो गया।
“अभी आधा घंटा और लगेगा इंजेक्शन और दवाई दे दी है।”
अब तो काके माँ के साथ वापस घर ऑटो से चला जाएगा, और मैं यहाँ से सीधे अपने ऑफ़िस।
पैसे चुकता कर मैं अपने स्कूटर से ऑफ़िस के लिए निकल पड़ा, भला हो वॉर्ड बॉय का जिसने इतनी कुशलता से काके का उपचार किया और टाँके लगाए। कम से कम मेरा उसे यहाँ लाना सार्थक तो हुआ, नहीं तो कहाँ-कहाँ नहीं भटकता।
ऑफ़िस की मीटिंग अब तक समाप्त हो चुकी होगी अब तो केवल मीटिंग के मिनट्स ही देखकर पता लगेगा कि क्या-क्या चर्चा हुई, किसके पास इतना समय है कि ज़बानी बताए?
अच्छा होता तो मैं ऑफ़िस जाने के बजाय सीधे विक्रेता के पास चला जाता परंतु कम्पनी की पॉलिसी के हिसाब से कोई अपने वाहन से विक्रेता के पास नहीं जा सकता। केवल कम्पनी की कार से या वह उपलब्ध नहीं है तो कम्पनी की उपलब्ध की हुई किराए की गाड़ी से। यहाँ से निकलकर कम्पनी ऑफ़िस में हर हाल में जाना ही पड़ेगा।
रास्ते में सोच रहा था काके की माँ कितनी क्रूर है बच्चे के हाथ को अपने ग़ुस्से से चीर डाला ऐसे तो कोई वहसी ही कर सकता है। माँ का बच्चे पर इतना ग़ुस्सा, अरे बच्चे तो शरारत करते रहते है डाँट-डपट कर चुप करा लेती पर झाड़ू से इतना क्रूरता दिखाना, कुछ समझ में नहीं आया।
पूरा दिन सुबह की घटना से दुःखी था। क्या माँ या बाप का बच्चे की ज़रा सी शरारत का ये दंड? नहीं-नहीं ये ग़लत है ज़्यादा ज़िद्दी या शरारत को इज़ाफ़ा कौन देता है बच्चे के मन में? माता-पिता इसके ज़िम्मेदार हैं। काके के हाथ में कटी चमड़ी की लम्बी दरार लाख कोशिस के बाद भी मेरे मन से हटी नहीं।
 
दिन भर की दौड़ा-दौड़ी के बाद जब शाम को घर लौटा तो देखा कि काके बच्चों के साथ वॉलीबॉल खेल रहा है, और उसने भी टाँके या पट्टी लगे हाथ से। वाह बेटा तेरा भी जबाब नहीं, अगर थोड़ा भी हाथ मे डले टाँके हिल गए तो? काके की माँ के लाख मना करने पर भी वह खेलने चला गया और वह भी वॉलीबॉल। मान गए तेरी शरारत को भी, पूछा “दर्द तो नही है”, सीधा उत्तर मिला “नहीं।”
बच्चा है पर सचमुच उसको कोई फ़र्क़ नहीं। मैं तो ख़्वाह-मख़ाह परेशान हो रहा था, पास बुला कर हाथ की पट्टी देखा तो अभी भी ख़ून जैसे रिस रहा था और पट्टी कहीं-कहीं पर लाल दिख रही थी। तुरंत घर जाने को बोला तो काके कहाँ मानने वाला था, मैं भी दबे पाँव चुपचाप अपने घर चला आया।
बहरहाल बच्चे का हाथ जैसे तैसे कर ठीक हो गया १५-२० दिन के अंदर ही घाव भरकर केवल टाँकों के निशान भर रह गए।

इस बीच बच्चे की शरारतों में कुछ और इज़ाफ़ा हो गया। शायद इसलिए कि उसे इस बीच कोई डाँट या मार भी नहीं पड़ी। अब वो पड़ोस में बँटी की सायकिल लेकर मेन रोड पर भी निकल जाता बिना ट्रैफ़िक की परवाह किए। उसके हाथ पावों में कहीं न कहीं चोट के निशान ज़रूर दिखते। दिन दोपहरी में स्कूल से आकर घर से निकलना, दो-तीन पड़ोस के और भी बिगड़े बच्चों के साथ खेलना, सायकिल पर इधर उधर चक्कर काटना बस यही काम होता। उसकी माँ उसके पीछे-पीछे कहाँ-कहाँ भागती? पिताजी उसके सुबह काम पर निकल जाते और देर रात को लौटा करते। फिर उसे समझाने वाला कौन होता? माँ का तो उसने नाक में दम कर दिया था।
 
रविवार का दिन था, और मैं घर पर आराम फ़रमा रहा था। तभी दो तीन लोग काके को कहीं से उठा कर ले आ रहे थे, क्यूँकि वह बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया था। क्या हुआ होगा? फिर से उसने कुछ न कुछ उत्पात ज़रूर मचाया होगा। दौड़कर पास गया तो पता चला की सायकिल चलाते वक़्त किसी भैंसा गाड़ी के पहिए के नीचे दब गया था। काके सायकिल पर सवार हो कर भैंसा गाड़ी के आगे वाले हिस्से में लटकती रस्सी पर लटक कर चल रहा था।धक्का लगने से गिर पड़ा और गाड़ी का पिछला टायर उसके पेट पर चढ़ गया। बच्चा बेहोशी की हालत में था। उस दिन घर पर उसके पिताजी भी मौजूद थे, उसे देख कर सब लोग इकट्ठा हो गए और घबरा गए थे। कुछ अनिष्ट होने का संकेत था। बच्चे के मुँह से थोड़ा ख़ून भी दिख रहा था। तुरंत ऑटो बुला कर पास के हॉस्पिटल ले आए। डॉक्टर की टीम ने परीक्षण किया तो पाया कि बच्चे के पेट में भैंसा गाड़ी का पहिया पड़ने से आँतों में घाव हो गया, और शायद शरीर के भीतरी अंगो को भी नुक़सान हुआ है।
डॉक्टर ने तुरंत किसी बड़े अस्पताल में ले जाने की सलाह दे कर अपना पल्ला झाड़ लिया।
ऊह! बड़ी विकट परिस्तिथि थी। माँ बाप की हालत देखने लायक थी, होती भी क्यूँ न।
दिल्ली में एम्स में उनकी जान पहचान थी पर यहाँ से क़रीब एक घंटा जाने में लगेगा, बीच में कुछ हो गया तो? एक संशय मन में दबा कर ऐम्स के आपातकालीन में बच्चे को जैसे तैसे दाख़िल किया।
बहुत उपचार करने पर भी काके को होश नहीं आया, बस ईश्वर पर ही अब सब लोग निर्भर थे।
बच्चे का पेट फूल गया, किडनी के साथ पेट के गुर्दे ज़ख़्म से ख़राब हो गए। २४ घंटे से भी ज़्यादा वक़्त हो गया।
घर का एक ही चिराग़ आज उसकी इन शरारतों की वजह से सबको दुखी कर दिया था। एक जीवंत बच्चा जिसको जख़्मों से कोई परवाह नहीं आज ज़िंदगी और मौत के बीच में झूल रहा था। मन बहुत खिन्न हो गया, अभी कुछ दिन पहिले ताज़ा ज़ख़्म होते हुए भी वह खेल कूद में मस्त था। उसकी शरारतें सब लोगों को एक-एक कर याद आने लगी, पढ़ने में अव्वल तो था ही वैसे बात करने में भी कॉलोनी के बच्चों से आगे रहता। इतनी छोटी उम्र में उसे इतनी ऊर्जा कहाँ से आ जाती थी।
मन में एक अजीब से अनिष्ट विचार आने लगे। डॉक्टर कुछ न कहने के लिए बच रहे थे। क्या कर सकते है, अब जैसे भी हो बच जाए बस।
 
सब लोग दुआ में ही लगे थे कि तभी रोने की हल्की आवाज़ सुनाई दी, डर सा लगा, कुछ अनिष्ट न हो जाए, बस!
“काके ने दम तोड़ दिया” कॉलोनी के लोग उधर की तरफ़ भागे जहाँ काके दाख़िल था। कुछ देर में ही सब बिखर गया। माँ बाप बेहोश हो कर गिर पड़े। सब ख़त्म हो गया, किसी की भी दुआ काम न आई। अल्प आयु में ही चला गया। होनी को कौन टाल सकता है, हर कोई मन मसोसकर रह गया।
एक अजीब से माहौल से बाहर निकलना भारी पड़ गया। मैं भी उसके पास जाकर केवल हाथ पर पड़े टाँकों के निशान को देखकर रो पड़ा, चेहरा देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
उसकी शरारतें आज भी मन को कुरेद देती हैं, तब लगता है जीवन छनभंगुर है। बच्चे शरारतें करते हैं पर सीमा में रहकर, माँ बाप की अनदेखी से शरारतें उनको बिगाड़ देती हैं। बच्चों की देख-रेख में माता पिता की तरफ़ से अगर कोई कमी है तो सुधार ज़रूरी है, नहीं तो कब पासा पलट जाए कुछ कह नहीं सकते।

हाथ पर टाँकों के निशान आज भी मेरे ज़ेहन से हटे नहीं जो आज भी सुरक्षित हैं।

हर्ष वर्धन भट्ट - फ़रीदाबाद (हरियाणा)

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