ठग - कविता - सतीश शर्मा 'सृजन'

क़दम-क़दम जीवन के प्रति पग,
छल करते मिल जाते हैं ठग।

जग आए तो मन था कोरा,
कुछ भी न था तोरा मोरा।
पहली ठगी किया पलना लोरी,
माता पिता संग बंध गई डोरी।

भाई बन्धु कुटुंब का परिवारा,
मीठे ठग बन किया व्यवहारा।
पत्नी सुत धीय बन्धन भारी,
ठग कर भी सब हैं आभारी।

कभी काम ठगे, नाम ठगे,
कभी दाम कभी बदनाम ठगे।
तन में मन में जब जगता है,
मेरा क्रोध मुझे ही ठगता है।

कभी लोभ जगाता रहता है,
यहाँ वहाँ भगाता रहता है।
मीठे खट्टे हैं जो स्वाद यहाँ,
ठगती रसना रचती है कहाँ?

नयनों का जो एक दरीचा है,
रंग रूप ओर नित खींचा है।
काजल कंगन नथ पायल है,
ठगता यौवन करे घायल है।

यह संसार छद्म क्षण भंगुर,
सार की चाह पकड़ हरि अंगुर।
तब तू ठगने से बच पाए,
आना दार तेरा हो जाए।

सतीश शर्मा 'सृजन' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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