मज़दूर - कविता - सुनील कुमार महला

मज़दूर पर कविता लिखना
टेढ़ी खीर है
कवि मज़दूर जितनी मेहनत नहीं करता
लेकिन
यह कटु सत्य है 
सच्चा
मज़दूर मेहनत करता है
मेहनत, ईमानदारी की खाता है
कम से कम
आठ घंटे
कोल्हू बन जाता है
बोझ उठाता है 
सुर्ख लाल ईंटें
काट देती हैं हथेलियों को
टूटी चप्पलों में फटी बिवाईयाँ
मज़दूर की मजबूरी की कहानी बयाँ करती हैं
सिर पर फटा गमछा लिए
कभी तवे सा गरम 
तो कभी ठंड की जकड़न में जकड़ा हुआ
लोहे का मज़बूत
तीखे, पैने किनारों वाला बट्ठल
मज़दूर होना लोहा होना है
मज़दूर क्या होता है?
लोहे से न पूछना
और न ही पूछना कभी किसी लोहार से
पूछना है तो
पूछना
अब तो
पूछ ही लेना
थोड़ी हिम्मत जुटा कर
स्वयं उस मज़दूर से
जो
हर ऱोज
अलसुबह
स्टेशन के पास साईकिल लिए खड़ा
साईकिल के डंडे से
"न्यातने" (रोटी लपेटने का महीन सूती कपड़ा) में चार-छह सूखी रोटियाँ
और लाल मिर्च बाँधे
ईश्वर से फ़रियाद करते हुए
आँखों में इंतज़ार लिए
गैंती, फावड़ा, हँसिया थामे
रोज़ी कमाने
मौसम से बेपरवाह
किसी झुँझलाए बच्चे सा
पेट की आग से डरते हुए
तकता है राह
किसी रसूखदार की।

सुनील कुमार महला - संगरिया, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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