रेगिस्तान - कविता - सुनील कुमार महला

मैं थार बोल रहा हूँ
गर्मियों में उबलती रेत, 
सर्दियों में शून्य से नीचे तापमान
शुष्क लेकिन विशाल
तरंगित मेरी बालुका सतह
चाँदी की रेखाओं सरीखे मिट्टी के धोरे
मीलों-मीलों तक गाँव तो क्या
आदमी का नामोनिशान नहीं
विरल आबादी, नगण्य वनस्पति
ऐसा कहते हैं लोग
लेकिन बंजर होकर भी
मैं तो समझता हूँ बख़ूबी
कैक्टस, खेजड़ी का दर्द
पनपाया है मैंने भी
अपनी गोदी में पीलू, बेर, काचर और मतीरा
बुई (रेगिस्तानी वनस्पति) पर नाचती देखी है मैंने
सीधी तिरछी धूप
मेरी मखमली रेत की चादर पर
चिंकारा जहाँ ढूँढ़ते हैं
घास पर बिछी शबनम की बूँदों की ठंडक
जैव विविधता का मैं हूँ गढ़
वनस्पतियों को, सरीसृपों को
मेरी गोदी में ऊँट हैं, बैल भी हैं
और हैं भेड़-बकरियाँ 
कैक्टस, खेजड़ी, नीम, काँटेदार झाड़ियाँ तो मेरा
सदियों सदियों से गहना है, शृंगार है
विचरण करते मिल जायेंगे
गोडावण और मोर
चित्त लेंगे जो आपका चोर
वो देखो
रेत के सागर में भी
दूर-दूर
रीते-रीते गाँव हैं
फिर भी इन रीते गाँवों में पनिहारिन डोलती हैं
दोघड़ लिए
मैंने सँजोए रखा है पानी की प्राकृतिक संरचनाओं
बेरी और बावड़ियों को
ताकि मिटा सकूँ प्यास
बोई है अनगिनत पवन चक्कियाँ
उगाए हैं सौर संयंत्र
आशाओं को सँजोए
मैं
सभ्यता -संस्कृति को सहेजे हुए
सेना की चौकसी का गवाह
सरहद पर
मेरी मिट्टी में आज भी ताक़त का चक्रवात बहता है
मुझसे लोगों की आशाएँ पल्लवित हैं
माना कि मीलों तक पानी नहीं है
लेकिन मेरी हवाओं में
मेरी फिजाओं में
अभी भी रंगत है
मैं रेगिस्तान ज़रूर कहलाता हूँ
लेकिन मेरे मन के भीतर रेगिस्तान नहीं है
हैवानियत की धूल नहीं है
जीवन की विपरीत परिस्थितियों के बीच
मुझमें बाक़ी है संवेदनाओं का जल
मैं बूँद-बूँद बहता हूँ
नित चुनता हूँ कतरा-कतरा वाष्प का
सहेज लेता हूँ कपास के नन्हें-नन्हें बादल
फिर
समरसता के अनगिनत मोती लुटाता हूँ
कर लेता हूँ
अपनी जीवन क्षुधा को शांत
मेरी हवा, पानी, मिट्टी की जो बात है
ख़ुदा कसम
एक करामात है
कैर, सांगरी, खींप, गोंद, कुमठ और
फोग
विलायती कींकरो, झाड़ियों से ओतप्रोत
मत भूलो
कि मुझसे भी गुज़रती हैं सुहाग रेखा सी डामर की अनगिनत सड़कें
फूस के झोपड़ों से
छप्परों, टापरियों से निहारना कभी मुझे
मैं तो नि:स्वार्थ प्रेम करता हूँ
मेरे जीवन की रीत निराली है
मैं शंखनाद करता हूँ
जीवन जगाता हूँ
संघर्ष सिखाता हूँ
क्या मुझे पता नहीं है कि
आज भी पर्यावरण प्रदूषण से मरतीं हैं हर रोज़ ज़िंदगियाँ
लेकिन
मेरे रेत के बवंडर में ऊँटों, भेड़-बकरियों के क़ाफ़िलें
आज भी जड़ों से
अपने क़दमों को मज़बूत कर रहे हैं
मैं तेज़ हवाओं से घबराता नहीं
बिफरता नहीं
आशाओं, उत्साह और ऊर्जा से मचलता हूँ
नामोनिशान है मुझमें तीक्ष्ण हवाओं का
मेरी गोदी में
परतों में बिछी हुई है हर तरफ रेत
रेतीले टिब्बों से मेरी सुंदरता
बरचन (बरखान) मदमस्त मेरे आँचल में
मैं तो
कल्पनाओं से हर स्मृतियों को सँजोता हूँ
मेरी मिट्टी के कैनवास पर
उकरते हैं रंग अनगिनत
मैं
बीज नफ़रत के नहीं बोता हूँ
मैं तो
सूर्य रश्मियों से आनंद बिखेरता
हर रोज़
सुबह और शाम
गर्मियों के कभी रात के समय तुम पसर जाना
सर्पिले
मेरे बरखानों पर
आनंद की हद तक न पहुँचा दूँ तो कहना
तुम मेरी मोहब्बत को बंद कर लेना
अपने आग़ोश में
हरगिज़ फिसलने न देना मेरी मोहब्बत की अथाह रेत को
ख़्वाबों में भी न बिछड़ना कभी
मेरी मंज़िलों के पाँव
तुम पकड़ लेना 
थाम लेना क़दम दर क़दम
मेरी शुष्क, रूखी हवाओं को
उनका साथ न छोड़ना कभी
वक्त की टहनियों को पकड़ कर जकड़ कर रखना बेशक
मैं जानता हूँ कि
तुम तो लेखक हो
तुम तो अपनी लेखनी से
पहुँचा ही दोगे मेरे मन की रश्मियों को
पाठक के दिल-ओ-दिमाग़ तक
जहाँ पाठक मरीचिका के शिकार नहीं होंगे
वे निश्चित ही
जान पाएँगे मेरी कहानी
मेरी जड़ों की कहानी
और
शायद तब
विरूपित नहीं होने पाएगा
मेरा प्रतिबिंब।

सुनील कुमार महला - संगरिया, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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