मेरी बेटी - प्रकृति रानी - कविता - डॉ॰ विजयलक्ष्मी पाण्डेय

कर रही भूमि का आराधन प्रकृति रानी,
मैं बैठी उपवन में देख रही मंद स्मित!
भोर बेला में धरती का अनुपम शृंगार,
गुलमोहर पुष्पों की लाल सुर्ख पखुडियाँ,
मानो अभी-अभी अर्पित की गई आरती!
चारों ओर गूँजता विहगों का मधुर कलरव,
कर रहा स्तुति गान, इस सजी-बुनी धरित्री का,
सभी की पोषक व पूज्य माँ!
मैं डूबी थी सुरम्य मधुर बेला की धार में,
कि मेरी दुधमुँही बेटी उठी और मचल गई,
मेरा ध्यान अपनी मुस्कान की ओर खीचने में!
उसकी मुस्कान में था,
वसुधा का शृंगार प्रकृति रानी के हाथो,
उसने मेरी ओर देखा मुस्कराई,
तो मैंने महसूस किया शीतल मुगंधित पवन में,
धूप-बत्ती का सुवास, उसकी दंतुली जैसे,
उगता सूरज थाल में सजा, सुशोभित हो रहा!
उसने मेरी ओर हाथ फैलाए,
जैसे पेड़ो की टहनियो पर
हिल रही पत्तियाँ करतल ध्वनि कर रहीं।
बिटिया प्रफुल्लित हो उठी,
मैं इस अद्भूत व अनुपम आराधन को देख अभिभूत हो गई!
मैंने निश्चय किया हूँगी शरीक नित्य इस आराधन में, प्रसन्नता व उल्लास का मिलन,प्रसाद रूप में ले जाएँगें।
दिव्य प्रसाद करेगा मुझे आप्लादित नई ऊर्जा से, जिजीविषा से।

डॉ॰ विजयलक्ष्मी पाण्डेय - इंदौर (मध्यप्रदेश)

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