इससे बड़ा फ़क़ीर कहाँ है - कविता - गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण'

किसी घुमक्कड़ योगी जैसा, आज यहाँ कल वहाँ ठिकाना। 
मात्र चीथड़े चिपके तन पर, यही सम्पदा यही ख़ज़ाना॥ 
रूखा सूखा जो मिल जाए, भूख मिटाने को खा जाना। 
मिल जाए तो ठीक नहीं तो, अँगड़ाई लेकर सो जाना॥ 

कर्म भोगते देखा इनके, कायिक भोगों को देखा है। 
मनोरोगियों जैसे उपजे, इनके रोगों को देखा है॥ 
जो संयोग देखना मुश्किल, उन संयोगों को देखा है। 
मैंने इस दुनिया में आकर, ऐसे लोगों को देखा है॥ 

जिनके पास नहीं दिखता कुछ, उनके पास बहुत होता है। 
जिनके पास नहीं होता कुछ, उससे बड़ा अधीर कहाँ है॥ 
उस अधीर को धीर धरा दे, इतना बड़ा फ़क़ीर कहाँ है॥ 

सिरहाने दो ईंटें रख लीं, फुटपाथों पर कहीं सो गए। 
कल की रोटी की क्या चिन्ता पेट भरा निश्चिन्त हो गए॥ 
थोड़ी देर ग़ौर से देखा आसमान को और खो गए। 
नींद आ गई तो फिर आड़े पुण्य आ गए पाप धो गए॥ 

हुआ सबेरा ठण्डक आई, धूप लगी तो छाँव घेर ली। 
आगे फटी कमीज पेट पर, हवा चली तो पीठ फेर ली॥ 
बदरी देखी उकड़ूँ बैठे, कचरे से पन्नी कढ़ेर ली। 
कैसे लोग जी रहे! देखो! कैसी यह माया अबेर ली॥ 

सौ एकड़ में बने महल को, बेशक सबसे बड़ा समझ लो। 
लेकिन सच है इस दुनिया में, नभ से बड़ा कुटीर कहाँ है? 
इस कुटीर में रहनेवाले, नर से बड़ा अमीर कहाँ है? 

इच्छाओं का शमन कर लिया, परवाज़ों को खाँसी दे दी।
घोर निराशा को चिर जीवन, आशाओं को फाँसी दे दी॥ 
एक आँख से कम दिखता है, दूजी आँख रुआँसी दे दी। 
नींद दान कर दी रातों को, दिन को ऊबासाँसी दे दी॥ 

लड़ने से पहले ही सबसे, जीती बाज़ी हार चुका है। 
केवल दुआ पास रखता है, शेष फैंक हथियार चुका है॥ 
इसी दुआ को बाँट-बाँट कर, ख़ुद कइयों को तार चुका है। 
बस इतना ही नहीं ताव में, ईश्वर को ललकार चुका है॥ 

सुनते हैं अक्खड़ कबीर भी, खरी-खरी कहते थे सबसे। 
फक्कड़पन की आज कहें तो, इनसे बड़ा कबीर कहाँ है? 
सोते-सोते पुण्य कमा लें, इनसे बड़ा नज़ीर कहाँ है? 

गिरेंद्र सिंह भदौरिया 'प्राण' - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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