दोस्ती - कविता - साधना साह

कुछ कहने की आरज़ू तुम्हारी
कुछ सुनने की कशिश मेरी
चलो न कहीं दूर तक चलते हैं।
न तुम इक़रार-ए-वादा करो
न मैं उम्मीदें ख़्वाहिश रखूँ
चलो न फिर से दोस्ती करते हैं।
वो अधूरा सा ख़्वाब बुनते हैं
उधर ख़ामोश हैं वो इधर भी
ख़ामोशी लम्बी खिंची है
अब तो निगाहों से ही बात करते हैं
चलो न इक शाम मुस्कुराते हैं।
कितने पतझड़ कितने बसन्त
आए और आकर चले गए
याद आ रही हैं वो हवाओं की सरगोशियाँ
जो कभी गुज़रती थीं छूकर हमें
लो फिर से आया आशिक़ी का मौसम
कुछ नया करते हैं।
झुके-झुके से नयन एतबार करते हैं
लो फिर से अनजानी राहों का सफ़र तय करते हैं
चलो न कहीं दूर तक चलते हैं।

साधना साह - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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