धरती का भूषण हैं पौधे
गिरे धरा जीवन बुझते।
उड़े पखेरू छोंड़ घोंसला
चींचीं चूजे रोते रहते
खा गईं चीलें कौवे नोंचें
हँसे बहेलिया आग जलाए
ठेकेदारी मौज मनाए।
प्रकृति सुन्दरी उजड़ रही है
निर्झर उसके आँसू बहते।
बिफरे बादल ले गए पानी
प्यासी धरा बिलखती
अन्न देवता भीख माँगते
लिए कटोरा उधर झाँकते
नयनों में है झील झलकती।
साहूकार बन गए विषधर
लहर ना आती दिन में डसते।
नदिया सूखी केवट रोए
शव भी अपना धीरज खोए
लकड़ी नहीं जलूँगा कैसे
और न गंगा में है पानी
यमदूतों नें गढ़ी कहानी।
कहीं न छाया और न काया
अपने ही अपनों को छलते।
प्राण वायु देते हैं पौधे
सघन कुंज के हरे घरौंदे
वन विभाग की भेंड़ चाल में
नहीं मिलेंगे खोजे जंगल
कोतवालों का जीवन मंगल।
कटती है साँसों की डोरी
यदि पौधे अब भी हैं कटते।
शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली' - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)