काँटों से अपनी यारी - कविता - राकेश राही

फूलों से इश्क़ क्या राही काँटों से अपनी यारी,
काँटों की चुभन में वफ़ा मोहब्बत से है प्यारी।
इश्क़ के बाज़ार में दर्द-ओ-ग़म लेकर खड़े रहे,
लुत्फ़ न मिला ढूँढ़े ग़म की गठरी ख़रीदी सारी।

मायूस चेहरों से उदासी का सबब न पूछा जाए,
उनकी ख़ुशी का ख़ूबसूरत इंतज़ाम किया जाए।
अभावों में ही गुज़र जाती है झोपड़ी में ज़िंदगी,
भूखे अकुलाए घरों मे बुझे चूल्हे जला दिए जाए।

सैलाब मे चलते नाविक किनारा नहीं ढूँढ़ा करते,
कर्मों में हो दम तो देव को भी पुकारा नहीं करते।
प्राणों की आहुति भी दी जाती है कुछ इसी तरह,
दीवाने हित के लिए अपनों को छला नहीं करते।

कभी-कभी बुझी राख मे भी आग हुआ करती है,
इसीलिए पेट की आग सबसे बड़ी हुआ करती है।
दुःख दर्द हम बाट सके पर हित मे कुछ कर सके,
मानव जीवन की उत्पत्ति इसीलिए हुआ करती है।

राकेश राही - ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)

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