अपनी खोल से निकलकर - कविता - सूर्य मणि दूबे 'सूर्य'

कभी अपनी खोल से निकलकर,
किसी के मन में झाँक कर देखो।
किसी के दुख दर्द को,
मन की आँखों से आँक कर देखो।

उनकी परिस्थितियों में जाकर,
एक पल जीकर देखो साथ उनके।
लड़ती है भूख उनसे, हारती है प्यास उनसे,
जीत भी पाता नहीं हर दर्द का अहसास उनसे।

कभी अपनी खोल से निकलकर,
किसी के मन में झाँक कर देखो।
रात भर बिलकते भूखे फटेहाल,
उन बच्चों संग सड़क पर जाग कर देखो।

एक निवाला दवा बनकर
दर्द मिटा सकता था लेकिन,
एक दया का हाथ बढ़कर
दुःख बंटा सकता था लेकिन,
तुम अपनी ही खोल में जीते रहे और
वो बिलखकर भुखमरी से मर गए।
जिन पत्थरों संग खेलते थे
उन पर ही रो-रो कर पसर गए।

अपनी खोल से निकलकर,
किसी के मन में झाँकता कोई क्यों नहीं?
दुख बाँट कर ख़ुशियाँ ही मिलती,
फिर भी बाँटता कोई क्यों नहीं?
कभी अपनी खोल से निकलकर,
किसी के मन में झाँक कर देखो।
किसी के दुख दर्द को,
मन की आँखो से आँक कर देखो।

सूर्य मणि दूबे 'सूर्य' - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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