हे तरुवर! - कविता - जयप्रकाश 'जय बाबू'

हे तरुवर! गर तुम न होते
साँस कहाँ से लाते हम?
खट्टा-मीठा और रसीला
स्वाद कहाँ से पाते हम?

लाल गुलाबी नीले पीले
ख़ुशबू वाले फूल न होते,
कलरव करते खगवृंद कहाँ
हरियाली और शूल न होते।
कैसे चलती यह जीवनधारा?
अमिय कहाँ से लाते हम। हे तरुवर!

निज स्वासों से निकली हवा से
चारों ओर ज़हर हम भरते,
ऑक्सीजन के बिन धरा पर
जीव सभी प्रतिपल मरते।
भला क्या होती उमर हमारी?
शतायु कहाँ बन पाते हम। हे तरुवर!

न होते जंगल और ये अंचल
कहाँ से आती निर्मल सरिता,
कलकल छलछल का मधुर निनाद
कैसे गाती अपनी धरिता?
तेरे बिन श्मशान सी दुनियाँ
गुलिस्तान किसे बनाते हम। हे तरुवर!

जयप्रकाश 'जय बाबू' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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