माँ का पल्लू - कविता - अमिता राज

माँ के पल्लू में मिलेंगे दाग़
अपने लाल के मुँह से जूठन पोछने के,
माँ के पल्लू में मिलेंगे
लाल के आँखों से पोछे हुए
नेत्रजल के निशान।
माँ के पल्लू में बंधी मिलेगी
एक गुल्लक सी गाँठि
जिसमे बंधे होंगे अपने लाल के लिए
रुपया, दो रुपया।
कभी लाल की आँख में कुछ गिरे तो
माँ अपने पल्लू को गोल बना,
फूँक मारकर, गरम करके
आँख में जब लगाएगी
तो लाल की आँखों का दर्द
कम हो जाएगा।
कभी माँ का पल्लू
लाल के हाथ पोछने वाला
अंगौछा बन जायेगा।
तो कभी लाल के चोट लगने पर
पल्लू ज़ख़्म पर बंधने वाली
पट्टी बन जाएगा।
कभी पल्लू सर्द रातों में
लाल को ढकने वाला
मोटा कम्बल बन जाएगा।
तो कभी पल्लू बरसात में
लाल के सर पर ढंकी
छतरी सा नज़र आएगा।
कभी पिता से डाँट पड़ते समय
लाल दीवार रूपी पल्लू की
ओट में छिप जाएगा।
तो कभी भीड़ में लाल 
खो जाने के डर से,
पल्लू को माँ की उँगली समझ
पकड़ा नज़र आएगा।
माँ के पल्लू में लाल को अपना
पूरा संसार नज़र आएगा।
वहीं, विवाह उपरांत
अपनी माँ की परवाह करने
या उनकी बात सुनने पर,
लाल समाज द्वारा अपनी माँ के
पल्लू से बंधा हुआ कहलाएगा।
पर आज जीन्स और सूट के ज़माने में,
माँ का पल्लू हमे कहीं
खोता हुआ नज़र आएगा,
पर इससे माँ का अपने लाल के प्रति
प्रेम कम नहीं हो जाएगा।

कविता में "लाल" शब्द बेटा/बेटी दोनो के लिए उपयोग किया गया है।

अमिता राज - शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश)

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