डगर - कविता - डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा'

जीवन की डगर पर कितने ही
पतझड़ औ बसन्त देखे हमने।

जीवन की डगर काँटों से भरी,
कुछ फूलों सी सुरभित पाई।
पत्थर ही मिले राहों में अधिक,
ठोकर ही हमने बहुधा खाई।
जीवन की डगर पर कितने ही,
पतझड़ औ बसन्त देखे हमने।

चलते ही रहे जीवनपथ पर हम,
मुड़कर पीछे देखा न कभी भी।
लोहित पैरों के दर्द सहे मन में,
पी गए अश्रु आए वो जभी ही।
कुछ आँखों में अपने नींद लिए,
कुछ जाग जाग देखे हैं सपने।

मंज़िल तक जो ले जा सकती,
राहें कुछ ऐसी भी मिलीं अगर। 
आकर मंज़िल के निकट बहुत,
चौराहों में जा बदली थीं मगर।
राहें कब मुड़ जाती यह साथी,
क़िस्मत का ये खेल कहें अपने।

डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा' - दिल्ली

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