छोड़ चले हैं बाबूजी - गीत - प्रवीन 'पथिक'

जीवन के सूने आँगन में,
यादों की पतझड़ है छाई।
एक दिवस ऐसा न गुज़रा,
जिस रोज़ उनकी याद न आई।
कर अनाथ हम माँ बेटे को,
मुख मोड़ चले हैं बाबूजी।
हमें छोड़ चले हैं बाबूजी।।
आँखों में लिए घर का सपना,
छोड़ चुका वो, जो था अपना।
सदा यूँ उनकी चिंता में ही,
ना ही सोना ना ही जगना।
दुःख से ही अपना रिश्ता,
हाँ, जोड़ चले हैं बाबूजी।
हमें छोड़ चले हैं बाबूजी।।
माँ का तो सजना-सँवरना,
चला गया अब उनके साथ।
आँखों में आँसू ही भर के,
रह गया करना उनकी बात।
माँ का तो ख़ुशियों से नाता,
यूँ, तोड़ चले हैं बाबूजी।
हमें छोड़ चले हैं बाबूजी।।
सोते लिए वो चिंता को,
लिए चिंता ही जगते वो।
आख़िर कौन ऐसी चिंता थी,
कभी नही ही कहते वो।
भईया के तो अंतः को,
झकझोड़ चले हैं बाबूजी।
हमें छोड़ चले हैं बाबूजी।।
जीवन भर अपनों के ख़ातिर,
दुख की गर्मी में जले गए।
आई जब आराम की बारी,
सब छोड़छाड़ यूँ चले गए।
जीवन को एक खालीपन से,
यूँ, जोड़ चले हैं बाबूजी।
हमें छोड़ चले हैं बाबूजी।।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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