उठ हुंकार भर - कविता - मयंक द्विवेदी

कुछ पहर की ढकी सी अमावस की चाँदनी,
कुछ क्षण धुँधली निस्तेज ग्रहण की दोपहरी,
चन्दा, सूरज ढक पाई? देखो फिर निकल आई।
दुख की बदली घन घोर घटा बन घिर आई,
जीवन में निराशा की घड़ी लौट फिर आई,
दुख तो पल दो पल का मेहमाँ तू क्यूँ सहमा,
उठ हुंकार भर, देख दुख की बदली यूँ छितराई।
क्या तुफ़ानों के आने से तेरी हस्ती हिल पाई?
पत्तों के अवसानो पर तरु पतझड में यू रोया होगा,
तरु विरह में बन ठूँठ सोचो कैसे रह पाया होगा?
दुख बिछोह गहरी चुप्पी, अपने में ही खोया होगा,
भूल गया सारी गुजरी नव कोपल जब मुस्काई,
क्या शास्वत मृत्यु के भय से जीवन गति रुक पाई?
बूँदों की गति क्या सोचो सागर से उठती जलकर,
देखो विरह वहाँ भी विरह यहाँ भी नभ से गिरकर,
कुछ पल जीना, अस्तित्व खोती फिर नदिया बनकर,
क्या बूँदों की विरह वेदना कोई सुन पाया?
क्या बूँदों ने विरह मृत्यु में अपनी प्रीत नहीं निभाई?
दुख तो पल दो पल का मेहमाँ तू क्यूँ सहमा,
उठ हुंकार भर, देख दुख की बदली यूँ छितराई।

मयंक द्विवेदी - गलियाकोट, डुंगरपुर (राजस्थान)

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