बसंत - कविता - अनिल भूषण मिश्र

हे ऋतुराज प्रकृति भूषण बसंत!
तुम लाए धरा पर ख़ुशियाँ अनंत।
बागों में अमराई महकी,
डालों पर चिड़ियाँ चहकी।
सज गया है धरती का कोना-कोना,
खेतों में सरसों के फूल लगें हैं सोना-सोना।
बगीचों में रंग-बिरंगी कलियाँ खिली,
प्रेमी ने प्रेमी से मिलने की मतवाली चाल चली।
कोयल ने पंचम स्वर में अपना ताल मिलाया है,
देखो कामदेव का परचम सर्वत्र लहराया है।
नर-नारी, पशु-पक्षी सब में है नया उमंग,
कामदेव ने छेड़ दिया है एक अनोखी जंग।
भँवरे कलियों पर मँडराते हैं,
प्रेमी प्रेमिका को देख ललचाते हैं।
जन साधारण हो या संत,
सब पर छाया है बसंत।
संत भी भक्ति रस में डूब गया,
कैसे वह अपने प्रेमी से छूट गया।
प्रकृति स्वयं है आज कितनी सजी,
ख़ुद अपने प्रेमी बसंत से मिलने को खड़ी।

अनिल भूषण मिश्र - प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)

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