अनोखा रिश्ता - कविता - आशी बिवाल

बेगानी ज़िंदगी में एक आस मिल गई,
हमें आप क्या मिले?
जीने की वजह मिल गई,
कल तक थी जो अकेली, 
वो आज पूरी हो गई,
अधूरी सी ज़िंदगी,
आज ख़ुशियों से पूरी हो गई,
कहने को तो माँ हो मेरी,
न जाने कब साथी बन गई,
यूँ ही बात करते-करते,
न जाने कब तुम दिया,
और मैं बाती बन गई,
तुम्हारा मेरा साथ ऐसा है,
जैसे हो ताला-चाबी,
मेरे हर सवालों की चाबी तुम हो,
मेरी हर जीत का मुक़ाम भी तुम हो,
तुम ही से होती है सुबह मेरी,
तुम ही पर ख़त्म है शाम मेरी,
जैसे मेरी डेली लाइफ़ का टाइम टेबल तुम हो,
यूँ तो होती है बात कई से,
पर तुम जैसी बात कहा,
जो ख़ासियत तुम में है,
वो औरों में कहा,
दुनिया बनाती है कई दोस्त,
पर उन सब में वह बात कहा,
मेरे तो घर में ही है मेरी साथी,
माँ के साथ-साथ दोस्ती भी है निभाती,
मेरी बातों पर हँसना,
रूठने पर मनाना,
दोस्त की तरह साथ देना,
मेरी शरारतो में ख़ुद को ढूँढ़ना,
कभी सहेली कभी माँ बनकर मेरा साथ निभाना,
होगा ऐसा दोस्त कहीं,
ऐसी मेरी माँ है ऐसा कोई भी नहीं।।

आशी बिवाल - उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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