आमदनी - कविता - कुमुद शर्मा 'काशवी'

आमदनी! तेरे आने से ही तो
धन का आना संभव होता है, 
तेरे आने का हर वर्ग को 
इंतजार रहता है।
तेरे आने से ही ख़्वाहिशें पूरी होती है,
किसी के दिखावे में बढ़ोतरी होती है,
तो किसी को दो वक्त की रोटी मिलती है।
पर यह क्या तू तो ऐसे रूठ चुकी है
जिसे मनाना मुश्किल हो रहा है,
अब ख़्वाहिशें तो दूर की बात रही
जीविका चलाना मुश्किल हो रहा है।
बनिए के यहाँ तू उसकी कमाई है,
मज़दूर को मिले तो उसकी रोटी,
रईस की शान भी तेरे आने से है,
मध्यमवर्ग की मुस्कान भी तेरे होने से है।
पर यह क्या तू तो ऐसे रूठ चुकी है
जिसे मनाना मुश्किल हो रहा है।
बच्चे भी तुझसे अछूते नहीं है,
तोहफ़े के रूप में तू उनकी आय हैं,
नौकरी पेशा वालों के यहाँ तो
हर महीने तेरी निश्चित दस्तक थी,
अब वहाँ भी सन्नाटा है।
मज़दूर पलायन को मजबूर है
जो घर से दूर रहकर
रोज़ कमाते रोज़ खाते थे,
अपनी जीविका चलाते थे,
रुख किया है उन्होंने घर का
जब से तुझ से नाता टूटा है।
तू तो ऐसे रूठ चुकी है
जिसे मनाना मुश्किल हो रहा है।
मध्यम वर्ग जो कल की चिंता में
आज को खो देता है,
कल शायद अच्छा हो
बचत पर जोर देता है,
अब तो बचत भी मुँह चिढ़ाने लगी है,
हमें ठेंगा दिखाने लगी है...
भविष्य की फ़िक्र तो दूर
अब तो वर्तमान की आन पड़ी है,
"आमदनी अठन्नी ख़र्चा रुपइया" कहावत भी
चरितार्थ होती नज़र आती है,
सरकार की भी हर संभव कोशिश जारी है
तेरे स्रोत ढूँढ़ तुझे धुरी पर लाने की,
पर यह क्या तू तो ऐसे रूठ चुकी है
तेरा इंतज़ार करना मुश्किल हो रहा है।
अब तो तेरे प्रवाह को आने दे,
सबकी शिकन को मिटने दे,
सबकी ख़ुशियाँ लाने दे।

कुमुद शर्मा 'काशवी' - गुवाहाटी (असम)

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