नारी का अस्तित्व - कविता - बीरेंद्र सिंह अठवाल

ख़ुशी कम दुख ज़्यादा सहन करती है नारी,
हर घड़ी काँटों की डगर से गुज़रती है नारी।
सदियों से नारी को क्यों देना पड़ा इम्तहान,
समस्या नारी के लिए ही लिए खड़ा ज़हान,
कष्टों के बोझ तले पल पल मरती है बेचारी।
ख़ुशी कम दुख ज़्यादा सहन करती है नारी।।

ख़ुशियाँ महक फैलाए है नारी की उलफ़त,
घर-आँगन स्वर्ग बनाए है नारी की शराफ़त।
काँच के जैसे ये बिखरे ख़्वाब पल में समेटे,
छल-कपट नहीं फिर भी हैं आँचल में काँटे।
लेकर उम्मीदें सपनों की सँवारती हैं क्यारी,
ख़ुशी कम दुख ज़्यादा सहन करती है नारी।।

ग़म की वो समुंदर सी लहरें दिल में दबाके,
क़दम रुकते हैं उसके बस मंज़िल पे जाके।
लाचार कर देती हैं कुछ इनको मजबूरियाँ,
टूट जाए बंधन भला पसंद किसको दूरियाँ।
टूटकर बहु बेटी कितनी बिखरती हैं हमारी,
ख़ुशी कम दुख ज़्यादा सहन करती है नारी।।

उलझनों में ये रहते हुए भी रखती हैं ख़्याल,
कैसे अपमान सहते हुए भी रहती हैं दयाल।
भौरों के नाराज़ होने पे तो हर्ज गुलशन बने,
घुट-घुट के अश्कों को पीना नर्क जीवन बने।
अपमान जहाँ नारी का सुलगती है चिंगारी,
ख़ुशी कम दुख ज़्यादा सहन करती है नारी।।

बिरेन्द्र सिंह अठवाल - जींद (हरियाणा)

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