सृजन के क्षण - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति

रात्रि सुख स्वप्न लेती,
मौन की चादर लपेटी।

एक जीवन, या कि अर्पण सोम मेरे हाथ में है,
एक अकिंचन यात्रा का दर्द मेरे साथ में है।

प्रकृति सतत खेलती है,
धरा प्रलय को झेलती है।

सौंदर्य-रूप कहो कब स्वप्न में मैले हुए हो?
दे रही आमन्त्रण और व्योम तक फैले हुए हो।

प्रीत से ज्योति बनी है,
पुष्प से ख़ुश्बू घनी है।

प्यार के मल्हार उठकर चाँदनी तक खींच आई,
होंठ के रक्ताभ दल पर एक चुम्बिश सींच आई।

वासना का ज्वार उठा,
सागरों से चाह रूठा।

उस कौतुहल सी नज़र उमंग से नहला रही,
हृदय में भरकर बाँह नस में आग से सहला रही।

उमंग में रुकना मना है,
इच्छा की अवहेलना है।

रूपसी की कसमसाहट से बादल जैसे लिपटता,
रौंदता है अंग-अंग विरोध में
आँसू छलकता।

एक तुझमे राग प्रबल,
जागती है राख शीतल।

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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