अमृतकाल के पाँच प्रण - कविता - आर्तिका श्रीवास्तव

आज हम यह प्रण करेंगे,
देश का मंथन करेंगे।
आज़ादी के सौ बरस को,
अमृत का उत्सव कहेंगे।

१. विकसित देश का लक्ष्य

अपनी वाचा और तन से,
हम करेंगे आत्म अर्पण।
हम करेंगे कर्म जो भी,
उसमें भी होगा समर्पण।

देश को विकसित बनाने
के लिए हम तप करेंगे।

आज हम यह प्रण करेंगे,
देश का मंथन करेंगे।

२. ग़ुलामी के हर अंश से मुक्ति

उपनिवेशी मनोवृति से,
ख़ुद को ऊपर हम रखेंगे।
और ग़ुलामी के असर से,
दूर हम ख़ुद को करेंगे।

सच में आज़ादी का मतलब,
हम निभाए आज मिलकर।

आज हम यह प्रण करेंगे,
देश का मंथन करेंगे।

३. देश की विरासत पे गर्व

जैसे सागर मथ हुआ था,
यूँ ही करना देश मंथन।
रत्न जैसी है धरोहर,
इसको रखना तुम सँजोकर।

बैर हालाहल बन जो निकले,
प्रेम से करना वो अमृत।

आज हम यह प्रण करेंगे,
देश का मंथन करेंगे।

माँ की आज़ादी की ख़ातिर,
जो लड़े थे वीर सैनिक।
उनको हम सब याद करके,
शीश अपना हम नवाँ के,
कर देंगे उनको अमर हम 
गान करके वो शहादत।

आज हम यह प्रण करेंगे,
देश का मंथन।

४. एकता और एकजुटता

हम प्रतिज्ञा है यह करते,
देश को उन्नत करेंगे।
इसकी एकता और अखंडता,
को सलामत हम रखेंगे।

इसकी रक्षा के ख़ातिर,
अनवरत कोशिश करेंगे।

आज हम यह प्रण करेंगे,
देश का मंथन करेंगे।

५. नागरिकों में कर्तव्य भावना

भारत के वासी है हम सब,
धर्म अपना एक है।
ख़ुद पे ही करके भरोसा,
हमको बनना नेक है।

ध्यान अपना कर्म पे हो,
बस यही चिंतन करेंगे।

आज हम यह प्रण करेंगे,
देश का मंथन करेंगे।

आर्तिका श्रीवास्तव - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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