ग़ुरूर - कविता - प्रतिभा नायक

किस बात पर ग़ुरूर करेगा ये 
सूरज,
नदी, तालाबों को सुखाने वाला,
मज़दूर के पसीने को सुखा न‌ पाया,
किसी के आँसुओं को पोंछ न पाया।

चाँद को फ़ख़्र था–
समुंदर को साहील तक, खींच कर लाने की
वक़्त का तक़ाज़ा है
हर बार ख़ुद ही घटता चला गया,
समुंदर भी कहाँ रूक पाया,
साहील के पास
लौट आया अपना सा वजूद लेके।

वो संगदिल पहाड़ खड़ा था,
रास्ता रोककर...
घिसता, टूटता चला गया
नदियों के उफान पर।

इतराओ नहीं
बुलंदियों को छूकर,
वक़्त के सिकंदर 
पहले भी हुएँ हैं,
आलीशान महलों
को देर नहीं लगती
बैचेन खंडहर होने में।

प्रतिभा नायक - मुम्बई (महाराष्ट्र)

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