दहेज प्रथा - कविता - अभिषेक विश्वकर्मा

एक ओर हैं फेरे चलते, एक ओर बेटियाँ जलती है,
दहेज नहीं! तो मारा उसको, ये कैसी रीतियाँ पलती हैं।

पिता कमाता पूरा जीवन अपनी बेटी के ख़ातिर,
वो कैसे देगा मोटर गाड़ी जो लाता दिहाड़ी कमाकर।

माथे पे चिंता है रहती, क्या पड़ेगा देना और कैसे कमाना है,
उस पिता पे क्या गुज़रती है, क्या कभी किसी ने जाना है।

प्रतिबंधित है दहेज प्रथा फिर भी क्यों ये है अब तक,
इस मोह माया के चक्कर में वो बेटी झेलेगी कब तक।

हर घड़ी ढूँढ़ता फिरता है एक बेटे सा दामाद, वो पिता,
कैसा और कहाँ मिले, ले जाए क़िस्मत कहाँ क्या पता।

जब तक ना होता ब्याह, बेटी को रहती अलग ही उलझन है,
सब समाज में सुनाते है उसको, बेटी तो पराया धन है।

पूरे जीवन की गाड़ी जिन दो पहियों पर चलती हो,
कैसे चलेगी गाड़ी जब पहियों की आपस में ना बनती हो।

बड़ी विडंबना है समाज की, अपनी बेटी पूजते हैं,
जो बेटी समान बहू है आती, उसे दहेज के ख़ातिर कोसते हैं।

वो अपने पिता के माथे पे चिंता की शिकन देखती है,
मैं लड़का क्यों नही हुई वो हर पल यही सोचती है।

जाकर वो दूजे के घर, जाने कितनी अग्नि परीक्षा देती है,
फिर भी वो उफ़ तक ना करती, मान पिता का रखती है।

अपनाने से पहले उसके बारे में कितना कुछ परखते हो,
तुम लड़की होना क्या इतना आसान समझते हो।

अभिषेक विश्वकर्मा - हरदोई (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos