अकेलापन - लघुकथा - निर्मला सिन्हा

"बहु ओ बहु! सुबह के सात बज गए हैं चाय कब पिला रही हो?"
"जी मम्मी जी! बस अभी ला रहे हैं।"
"राधिका तुमने मेरी फ़ाइल कहाँ रख दी है कब से ढूँढ़ रहा हूँ मिलनें का नाम ही नहीं ले रहा तुमसे कई बार कहा है कि मेरी काम के चीज़ों को तुम हाथ मत लगाया करो। लेकिन तुम हो कि मानती ही नहीं हो।"
"जी अभी देती हूँ आपकी फ़ाइल, बस दो मिनट"
"मम्मी मेरा शूज नहीं दिख रहा है, कहाँ है जल्दी बताओं मम्मी। आज मुझे स्कूल जल्दी जाना हैं आज मेरा मेरे स्कूल में राष्ट्रभक्ती गायन हैं। प्लीज मम्मी जल्दी करों।"
"हाँ अभी दे रहीं पियूष बेटा।"
"बहु मेरा चश्मा कहाँ है? बेटी कहाँ रखा है? ज़रा ढूँढ दो मुझे मिल नहीं रहा।"
"जी पापा जी! अभी देखतें हैं।"
"बहु मेरा चाय तो लाओ"
"जी माँ जी! ये लो आपका चाय।"
"ये लीजिए पापा जी आपका चश्मा।"
"अब कृपा करके मेरी फ़ाइल भी ढूँढ दो महारानी, थोड़ा जल्दी करो, मुझे देर हो रही है।"
"मम्मी मेरा शूज भी अभी तक नहीं मिला।"
"आप दोनों पहलें नाश्ता कर लो, मैं अभी लाती हूँ आप दोनों के समानो को।"
"थोड़ा जल्दी करो राधिका नाश्ता करने का समय नहीं है, ऑफ़िस जल्दी जाना है। आज तो तुम्हारे कारण मेरे बोस से डाँट सुनना पड़ेगा।"
"पियूष के पापा! आपकी फ़ाइल वही हैं जहाँ रहती हैं। ये लो ये रहा आपकी फ़ाइल।"
"पियूष बेटा! आपका शूज भी शूज के रैक में रखा हुआ है और हमेशा वही रहता हैं। ये रहा आपका शूज पियूष।"

सब अपनी-अपनी चीज़े लेकर चलें जातें हैं।
"बहु ओ राधिका बहु!"
"जी माँ जी! आई"
राधिका दौड़ते हुए घर के अंदर जातीं हैं।
तभी विमला कहतीं हैं "देखों आज दोपहर का हमारा खाना मत बनाना हम बाहर जा रहे हैं और आते-आते शायद रात भी हो जाए तो तुम रात को भी खाने में हमारा इंतज़ार मत करना।"
"जी ठीक है माँ जी!"
तभी घर का फोन बजने लगता है, राधिका दौड़ कर फोन उठाती हैं।
"हैलो! कौन?"
तभी फोन में सामने से आवाज़ आती हैं।
"हाँ राधिका मैं संतोष बोल रहा हूँ।"
"अरे आप ऑफ़िस पहुँच गए?"
"हाँ मैंने कहा था ना आज मेरा इम्पोर्टेन्ट मिटिंग है तो सोचा तुम्हे बता दूँ, देखों आज मुझे आनें में देर हो जाएगी तो तुम मेरा आज डिनर पर इंतज़ार मत करना। वरना रात भर भूखी रह जाओगी। तुम्हारा क्या सोचा तुम्हे बता दूँ।"
"जी ठीक है जी।"
तभी राधिका लम्बी साँसे भरती हुई सोफे पर बैठ जाती हैं और अपने घर को एकटक देखते हुए सोचने लगती हैं कि कितना आवश्यक है कभी-कभी अपने लिए एकांत समय निकालना, अपने आपको जानना, अपने आपको पहचानना, अपने अंदर छुपे हुनर को बाहर निकालना। लेकिन, लेकिन क्या राधिका तुम वो हो जो तुम हो।
तुम पीछे नहीं हट सकती।
अंदर की राधिका जैसे बाहर रूपी राधिका को हिम्मत दे रही हो। बता रही हो कि कभी-कभी अकेलापन आपमें वो समझ पैदा करता है जिसकी आपको तलाश हैं।
ख़ुद को जानने के लिए, ख़ुद को पहचानने के लिए कभी-कभी अच्छा होता हैं अकेलापन। सबके नज़रों में खरे उतरते-उतरते रह जाता है ख़ुद में एक अकेलापन।
भरीं महफ़िल भी मज़ा नहीं दे पाती जो कभी-कभी अपने आपको ढूँढ़ने में मिलता है, अपने आप में खोने पर मिलता है। लेकिन कभी-कभी अकेलापन चुभता है, तड़पाता हैं, रुलाता हैं, सताता है लेकिन फ़िर भी अच्छी पुरानी यादें भी याद दिलाता है।
ऐसे ही बातों को सोचते-सोचते राधिका चैन की साँसे भर ही रहीं थीं कि तभी डोर बेल सुनाई देतीं हैं।
राधिका अपनें ख़्यालों की दुनिया से वापस आती हैं और दरवाज़ा खोलती है।
दरवाज़ा खोलते ही पड़ोस में रहने वाली सरला आंटी दिखाईं देतीं हैं।
"अरे सरला आंटी! आप अभी?"
"हाँ मैं और कौन होगा? राधिका! मैं तो तुम्हे बताने आई थी कि आज हमारी किटी पार्टी हैं, तो मैंने सोचा विमला को अपने साथ लेते हुए चलूँ। कहाँ है विमला?"
अरे सरला आंटी! वो मम्मी जी और पापा जी बाहर गए हैं, उन्हे तो आनें में रात हो जाएगी।"
"अच्छा कोई बात नहीं मैं चलती हूँ।
"अरे हाँ मेरी बहू कह रही थी कि वो भी किटी पार्टी करना चाहती है तो तुम सब मिलकर अपनी एक ग्रूप बना लो। अरे घर के कामों से थोड़ी फ़्री भी रहा करोगी।"
"अरे नहीं सरला आंटी जी! मुझे फ़्री होंने के लिए किसी पार्टी या किटी पार्टी की आवश्यकता नहीं है। मैं अकेली ही काफ़ी हूँ अपने आपको फ़्रेश करनें के लिए। मेरे बारें में सोचने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया सरला आंटी जी!"

निर्मला सिन्हा - डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़)

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